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जगचिंतामणी सूत्र
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'जग' अर्थात् जगत्, विश्व, लोक अथवा जीवों का समूह '। 'चिंतामणि !' अर्थात् चिंतन मात्र से इष्ट फल को देनेवाला एक रत्न।
भगवान को यहाँ चिंतामणि रत्न के समान कहा है । जैसे विधिपूर्वक चिंतामणि रत्न का सेवन करने से आत्मा को इष्ट सामग्री प्राप्त होती है, वैसे ही भगवान की विधिपूर्वक सेवा करने से इष्टफल की प्राप्ति होती है। जो भव्य आत्माएँ भगवान को भाव से पूजती हैं या नमस्कार आदि करती हैं, उनको उत्कृष्ट कोटि का पुण्यबंध होता है । ऐसे पुण्य के प्रभाव से वे जब तक इस संसार में होती हैं, तब तक चाहें या न चाहें, उनको धर्म करने की सभी सामग्री से युक्त मनुष्य भव अथवा उत्तम कोटि का देवभव तथा अनेक प्रकार की भोग सामग्रियाँ मिलती हैं । भगवान द्वारा प्ररूपित धर्म का सेवन करने के बाद उनके सभी भव सुख से भरपूर होते हैं । सुख की सामग्री मिलने पर भी वे आत्माएँ उसमें आसक्त नहीं होती । उन सुख सामग्री का उपयोग वे आत्म-साधना के लिए करती हैं । पुण्योदय के सहारे ऐसी भावपूर्वक भक्ति करते करते, विशिष्ट पुण्यबंध और निर्जरा की परंपरा द्वारा वे अंत में मोक्ष को प्राप्त करती हैं । इस प्रकार इष्ट मोक्ष की
और उनके उपायों की प्राप्ति में विशिष्ट कारण परमात्मा ही हैं । इसलिए यहाँ परमात्मा के प्रभाव को व्यक्त करने के लिए भगवान को चिंतामणि रत्न की उपमा दी गई है । यह पद बोलते समय सोचना चाहिए,
"चिंतामणि तुल्य प्रभु मुझे मिले हैं । अब मुझे चिंता कैसी ? केवल विधिपूर्वक उनकी आराधना करनी है । इतना करूँगा तो इहलोक और परलोक की सर्व वस्तुएँ प्राप्त होने वाली ही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं ?"