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जगचिंतामणी सूत्र तीआणागय-संपइय सब्वे वि जिण वंदु ।।३।। अतीतानागत-साम्प्रतिकान् सर्वानपि जिनान् वन्दे ।।३।। है (और) भूत - भविष्य और वर्तमान काल में (थे, होंगे और हैं) उन सब जिनेश्वरों को भी में वंदन करता हूँ ।।३।।
तिअलोए अट्ठकोडीओ, छप्पन लक्खा सत्तावणवइ सहस्सा बत्तीस-सय बासीयाइं चेइए वंदे ।।४।।
त्रिलोके अष्टकोटी: षट्पञ्चाशतं लक्षाणि सप्तनवतिं सहस्त्राणि द्वात्रिंशत्शतं द्वयशीति चैत्यानि वन्दे ।।४।।
तीन लोक के आठ करोड़, छप्पन लाख सत्तानबें हजार, बत्तीस सौ बयासी (८,५७,००,२८२) जिनमंदिरों को में वंदन करता हूँ ।।४।।
पन्नरसकोडी सयाई बायाल कोडी अडवत्रा, लक्ख छत्तीस सहस्स असीइं सासय-बिंबाइं पणमामि ।।५।।
पञ्चदशकोटी:शतानि द्विचत्वारिंशतं कोटी: अष्टपञ्चाशत् लक्षाणि षट्त्रिंशतं सहस्राणि अशीतिं शाश्वत-बिम्बानि प्रणमामि ।।५।।
पंद्रह सौ बयालीस करोड़ अट्ठावन लाख छत्तीस हजार अस्सी (१५,४२,५८,३६,०८०) शाश्वत प्रतिमाओं को (मैं) प्रणाम करता हूँ ।।५।। विशेषार्थ :
इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूं ? - हे भगवंत! आप इच्छापूर्वक मुझे चैत्यवंदन करने की आज्ञा दें ।
कोई भी कार्य करने से पहले उस कार्य संबंधी इच्छा गुरु को बताकर और गुरु से आज्ञा प्राप्त करके उस कार्य का प्रारंभ करना चाहिए; यह जैनशासन की मर्यादा है। इस प्रकार आज्ञा माँगकर, गुरु के अधीन रहकर ही सभी अनुष्ठान करने चाहिए, क्योंकि गुणवान की परतंत्रतापूर्वक की गई क्रिया ही गुणप्राप्ति का कारण बनती है और गुरु आज्ञा में ही श्रेय है, इस प्रकार का बोध स्पष्ट होता है ।