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सूत्र संवेदना - २
माँग करनेवाले व्यक्ति को अपनी मर्यादा के अनुसार वस्त्र, पात्र, अलंकार वगैरह भौतिक सामग्रियाँ देता है, जब कि भगवान के पास भक्त को कभी माँगना नहीं पड़ता । माँगे बिना ही भगवान की भक्ति पराकाष्ठा के ऐहिकभौतिक सुख तो देती है; पर साथ ही सीमातीत आत्मिक सुख भी देती है । इसीलिए वास्तव में तो भगवान को कल्पवृक्ष से भी ज्यादा विशेष वस्तु की उपमा देनी चाहिए । परन्तु उससे भी बढ़कर इस जगत में दूसरी चीज़ नहीं है, इसलिए यहाँ भगवान को कल्पवृक्ष की उपमा दी गई है । यह पद बोलते समय साधक को खास सोचना चाहिए -
“कल्पवृक्ष भी पुण्यवान को ही फल देता है, दूसरों को नहीं । उसी तरह तीन जगत के नाथ परमात्मा भी जो अपने हिताहित का विचार कर सकें, ऐसी योग्य आत्माओं के लिए ही कल्पवृक्ष तुल्य हैं, जो अपनी आत्मा के हित का विचार नहीं करते, वैसी अयोग्य आत्माओं के लिए परमात्मा कुछ नहीं करते । इसीलिए यदि अपनी आत्मा के हित की चिंता करूँ, आत्महित के लिए इस भगवान की भक्ति करूँ, तो ही भगवान मेरे लिए कल्पवृक्ष के
समान हो सकेंगे ।" भवजलनिधिपोत : संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए नाव तुल्य (शांतिनाथ भगवान हमेशा तुम्हारे श्रेय के लिए हों !)
जैसे जहाज द्वारा बाह्य समुद्र को पार किया जाता है, वैसे ही संसार को भगवान के बताए हुए संयम से पार किया जाता है, इसीलिए भगवान को भवरूपी सागर को पार करने के लिए जहाज तुल्य कहा है । संसार और समुद्र में बहुत समानता होने से शास्त्रकारों ने संसार को समुद्रतुल्य कहा है । बाह्य समुद्र जैसे खारे पानी से भरा होता है, वैसे ही चौदह राजलोक प्रमाण संसार रूपी समुद्र जन्म और जरा रूपी खारे पानी से भरा है । चौदह राजलोक में कोई भी ऐसा स्थान नहीं है कि, जहाँ जन्म और मृत्यु की संभावना न हो । समुद्र में जैसे बीच में आनेवाले पर्वत मुसाफिर को