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सकलकुशलवल्ली सार्थ
वचनरूपी किरण भव्यात्मा रूपी भूमि के ऊपर फैलती हैं, वैसे-वैसे पाप रूपी अंधकार दूर होता है ।
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यहाँ खास ध्यान रखना है कि, सूर्य की किरणें भी छिद्रयुक्त भूमि में ही प्रवेश करपाती हैं । निश्छिद्र भूमि पर फैलकर वे अंधकार का नाश नहीं कर सकती हैं, वैसे ही भगवान के वचन भी कर्मविवरयुक्त आत्मा में ही प्रवेश पाकर पाप का नाश कर सकते हैं । जो कर्मों से लदे हैं, जिनके कर्म के आवरण में कहीं विवर (छेद) नहीं है, वैसी आत्माओं में ये वचन रूपी किरणें प्रवेश नहीं कर सकतीं, इसीलिए उनके पाप रूप अंधकार का नाश भी नहीं होता ।
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यह पद बोलते हुए सोचना चाहिए,
“भगवान की कृपा को प्राप्त करने के लिए भी सबसे पहले मुझे अपने कर्मों को कुछ अंश में तो नाश करना ही पड़ेगा और यह भगवान की भक्ति से ही हो सकता है । अतः मैं भगवान की द्रव्य से भी भक्ति करके अपने कुछ कर्म का नाश करूँ, जिससे प्रभु मेरे लिए जरूर पाप और अज्ञान का नाश करनेवाले सूर्य बन सकें ! और मैं ज्ञान प्राप्त करके जगत् की वास्तविकता को देखकर, संसार से पर होकर आत्म स्वरूप को प्रगट कर सकूँ ।" कल्पवृक्षोपमान :- कल्पवृक्ष की उपमावाले (वे शांतिनाथ भगवान सदैव तुम्हारे श्रेय के लिए हों !)
विधिपूर्वक सेवा करके, यथायोग्य याचना करनेवाले को जो चाहिए, वह देनेवाला वृक्ष कल्पवृक्ष कहलाता है । जैसे कल्पवृक्ष की छाया में बैठकर व्यक्ति मन में जिसका संकल्प करता है, वह वस्त्र, अलंकार, भोजन आदि कोई भी भौतिक सामग्रियाँ कल्पवृक्ष प्रदान करता है, वैसे ही भावपूर्वक देवाधिदेव परमात्मा की भक्ति करनेवाले को भी उस भक्ति के प्रभाव से मनोवांछित की प्राप्ति होती है । इसलिए स्तुतिकार ने परमात्मा को कल्पवृक्ष की उपमा दी है, परंतु भगवान और कल्पवृक्ष में बहुत अंतर है । कल्पवृक्ष