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________________ सकलकुशलवल्ली सार्थ २७ सफर नहीं करने देते, वैसे ही संसार में हर कदम पर आने वाली आपत्तियाँ निर्विघ्न जीवन निर्वाह नहीं करने देतीं । समुद्र में जैसे मछली, कछुआ, मगर वगैरह मुसाफिर के लिए मुश्किलें खड़ी करते हैं, वैसे ही संसार में रोग-शोक, संताप वगैरह जीवों को अनेक प्रकार से पीड़ा देते हैं । जैसे समुद्र में बीच-बीच में आनेवाले आवर्त पथिक के प्राणों का नाश करते हैं, वैसे ही संसार में क्रोधादि के आवर्त संसारी जीव को शांति और समाधि का विनाश करते हैं । जैसे समुद्र में प्रगट हुआ वडवानल समुद्र के पानी को सोख लेता है, वैसे ही संसारवर्ती प्राणियों में प्रकट होनेवाला काम शरीर की सातों धातुओं और मन को सतत संतप्त रखता है । इस प्रकार संसार और समुद्र के बीच बहुत साम्य होने से संसार को समुद्र के समान कहा गया है। जबकि, ऐसे संसार का पार पाना असम्भव है, तो भी भगवान द्वारा बताया हुआ संयम रूपी जहाज जो पाँच समिति और तीन गुप्ति रूपी मजबूत लकड़ियों से बंधा हुआ है, क्षमादि दस यतिधर्म से अलंकृत है, मूलगुण रूपी मजबूत तलवाला है, उत्तर गुण से वेगवान बना हुआ है, उस संयम रूपी दृढ जहाज का जो सहारा लेते हैं, वे आसानी से इस संसार सागर को पार कर लेते हैं, इसीलिए भगवान को भवजलनिधिपोत कहा है। यह पद बोलते भव्यात्मा को सोचना चाहिए - "भगवान ने तो इस संसार रुपी समुद्र को पार करने के लिए संयमरुपी जहाज बनाया है। अपनी शक्ति के अनुसार अगर मैं सर्वांग या आंशिक भी इस संयम धर्म का स्वीकार करूँगा, तो ही मैं संसार सागर को पार कर सकूँगा ।” सर्वसंपत्ति हेतु :- सर्व संपत्ति के कारणभूत (वे शांतिनाथ भगवान सदैव तुम्हारा श्रेय करें !)
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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