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सकलकुशलवल्ली सार्थ
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परमात्मा की वाणी ऐसे पुष्करावर्त मेघ जैसी है । उसका मनन-चिंतनपालन करने से साधक में ऐसे संस्कारों का वपन होता है, जिससे वह अल्प समय में अनंत सुखों का स्वामी बन जाता है । जब तक ऐसा सुख न मिले तब तक भौतिक और आध्यात्मिक सुख की परंपरा चलती रहती है, इसलिए परमात्मा को सर्व कुशलरूप फल को देनेवाली लता के विकास के लिए पुष्करावर्त मेघ जैसा कहा है ।
सकल कुशल याने सर्व प्रकार का कुशल । कुशल शब्द का अर्थ है कल्याण - सुख - क्षेम । जगत के प्रत्येक जीव कल्याण और सुख को चाहते हैं । सामान्यतया सुख दो प्रकार के माने जाते हैं - भौतिक और आध्यात्मिक । उसमें भौतिक सुख पराधीन और दुःख में परिवर्तित होनेवाला मात्र भ्रामक सुख है, जब कि आध्यात्मिक सुख स्वाधीन और अविनाशी परम आनंद तक पहुँचानेवाला वास्तविक सुख है ।
क्षमादि गुणों के विकास और क्रोधादि दोषों के विनाश के बिना कोई जीव इस वास्तविक सुख का अनुभव नहीं कर पाता । जो शांतिनाथ भगवान के गुणों को उपस्थित करके उनका ध्यान करते हैं, उनके वचनों का सतत श्रवण-चिंतन-मनन करते हैं, उनके जैसे गुणों को प्राप्त करने के लिए भजन-कीर्तन करते हैं, उनकी आज्ञा का पालन करते हैं, उनका हृदय मैत्री, प्रमोद, करुणादि शुभभावों से भीग जाता है । शुभ भावों से भीगी हुई उस हृदयभूमि में क्षमा, मृदुता आदि गुणों की बेल का साहजिक विकास होता है, इसलिए परमात्मा की मेघ के साथ तुलना की गई है । इसके अतिरिक्त, परमात्मा के ध्यानादि से साधक की आत्मा में ऐसे संस्कार पड़ते हैं और ऐसा पुण्यानुबंधी पुण्य का बंध होता है कि कभी भविष्य में उस गुणरूपी बीज को अन्य कोई सामग्री न मिलें, तो भी अनेक भव तक उसका विकास होता ही रहता है, इसलिए भगवान को सामान्य मेघ नहीं परंतु पुष्करावर्त मेघ तुल्य कहा गया है । प्रभु के वचनरूपी वर्षा से सींची हुई गुण रुप बेल ही सकल सुख को देनेवाली है, पुण्यानुबंधी पुण्य के द्वारा