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सूत्र संवेदना - २
एक हो जाता है । अब उसे परमात्मा अपने बहुत नज़दीक हो, अपने बहुत प्रिय स्वजन हो, अपने कार्य के साधक हो वैसा लगता है। इसलिए साधक इसके बाद प्रभु को पाने के लिए प्रभु से तेरह माँग स्वरूप जयवीयराय सूत्र बोलता है। प्रभु को प्रार्थना करने का यह सूत्र अत्यंत संवेगभाव युक्त हृदय से, मन के प्रणिधानपूर्वक, हाथ को मुक्ताशुक्ति मुद्रा में स्थापित कर, हम प्रभु से कुछ मांग रहे हों और उनके अनुग्रह से हम कुछ प्राप्त कर रहे हों वैसे भावपूर्वक बोलना चाहिए ।
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८. उसके बाद खड़े होकर अरिहंत चेईयाणं अन्नत्थ कहकर एक नवकार का काउस्सग्ग करें। काउस्सग्ग करके ( नमो अरिहंताणं कहकर ), नमोऽर्हत् बोलकर, अधिकृत जिन की स्तुति / थोय कहें।
इस बात की समझ जघन्य चैत्यवंदन की विधि में से प्राप्त कर लें ।
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९. अंत में एक खमासमण दें।
कार्य की पूर्णाहुति होने पर पुनः वंदना करने के लिए पंचांग प्रणिपात मुद्रापूर्वक यह सूत्र बोलकर एक खमासमण देना चाहिए ।
उत्कृष्ट चैत्यवंदन' :
१. प्रथम एक खमासमण देकर खड़े होकर 'ईरियावहिया ०', तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० कहकर (चंदेसु निम्मलयरा) तक का एक लोगस्स का (न आए तो चार नवकार का काउस्सग्ग करें। काउस्सग्ग पारकर ('नमो अरिहंताण' कहकर ) प्रकट लोगस्स कहें।
२. उसके बाद तीन खुमासमण देकर, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् । चैत्यवंदन करूँ' इस प्रकार आदेश माँगकर, 'इच्छं कहकर आदेश का स्वीकार करें ।'
३. उसके बाद सकलकुशलवल्ली० कहकर कोई भी एक चैत्यवंदन बोलकर, ‘जं किंचि’, सूत्र कहें। 8 उत्कृष्ट चैत्यवंदन : नमोऽत्यु णं० अरिहंत चेईयाणं०, लोगस्स०, पुक्खरवरदी० और सिद्धाणं०
ये पाँच दंडकसूत्र अथवा पाँच नमोऽत्थु णं और स्तुति के दो युगल अर्थात् की ८ थोयों द्वारा स्तवन, जावंति चे०, जावंत के वि० और जयवीयराय इन तीन प्रणिधान सूत्र द्वारा उत्कृष्ट चैत्यवंदना होती है।