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चैत्यवंदन की विधि
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इसलिए मुक्ताशुक्ति मुद्रा 7 (प्रणिधान मुद्रा) में हाथ को स्थापित करके, मन को एकाग्र करके, यह सूत्र इस प्रकार बोलना चाहिए कि सभी स्थान में रहनेवाली प्रतिमाओं की स्मृति हो और यहाँ बैठे-बैठे उन प्रतिमाओं को भाव से वंदना करके कृतार्थता का अनुभव हों ।
५. फिर एक खमासमण देकर, 'जावंत के वि साहू' सूत्र बोलें ।
उसके बाद एक खमासमण देकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा में हाथ को स्थापित करके 'जावंत-केवि साहू' सूत्र बोलना चाहिए । यह सूत्र भी इस प्रकार बोलना चाहिए कि श्रेष्ठ साधु भगवंतों और उनके द्वारा की जानेवाली प्रभु वचन के पालन स्वरूप श्रेष्ठ भक्ति स्मृति में आए और वैसी भक्ति करने को मन उल्लसित हो ।
६. उसके बाद 'नमोऽर्हत्' सूत्र बोलकर उवसग्गहरं स्तोत्र या कोई भाववाही स्तवन मधुर स्वर से गाए ।
सभी साधुओं को वंदन करके परमात्मा के गुणों को और उनके उपकार को स्मृति में लाकर तथा अपने दोषों का उद्भावन करने के लिए स्वरचित अथवा पूर्व पुरुषों की रचनारूप प्रचलित भाषा में बनाया गया स्तवन गाएँ ।
स्तवन अर्थात् गेय कृति - यह कृति अपनी-अपनी भावना के अनुसार बनाकर गाई जा सकती है। अपनी वह शक्ति न हो तो, पूर्व पुरुष की अपनी भावना को व्यक्त करती हुई कृतियों में से जो कृति अपने भावोल्लास में वृद्धि करनेवाली हो, उसे एकाग्र मन से, गंभीर स्वर से, मधुर कंठ से गाना चाहिए । इस तरह स्तवन गाने से यह क्रिया अत्यंत भावोल्लास का कारण बनती है। क्योंकि स्तवन गुजराती आदि प्रचलित भाषा में होते हैं, उनके भाव समझना आसान होता है और स्तवन की पंक्तियों को बार बार दोहराया भी जा सकता है, इसलिए सामान्य जन के लिए ये स्तवन बहुत उपकारक बनते हैं।
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७. फिर जयवीयराय सूत्र बोले ।
स्तवन गाने तक की क्रिया करते हुए साधक का मन परमात्मा के साथ 7 मुक्ताशक्ति मुद्रा में दो हाथ की अंगुलियों को परस्पर सामने जोड़कर दो हथेलियों के बीच ज़गह रखकर ललाट पर लगाना चाहिए या अन्य मत से ललाट से कुछ दूर रखना होता है ।