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चैत्यवंदन की विधि
३३१ करते हुए अजयणा से या अविधि से जीवों की जो हिंस हुई हो, उसका प्रतिक्रमण करने के लिए पूछना चाहिए -
'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! इरियावहियं पडिक्कमामि' हे भगवन् ! स्वेच्छा से आज्ञा दें । मैं ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण करूँ ? ।
गुरु भगवंत की उपस्थिति हो तो गुरु भगवंत कहते हैं - 'पडिक्कमेह' तुम प्रतिक्रमण करो ! गुरु की गैरहाज़री हो तो आज्ञा मिली है, वैसा मानकर शिष्य आज्ञा को शिरोधार्य करते हुए कहता है - ‘इच्छं' मैं आपकी आज्ञानुसार करना चाहता हूँ।
उसके बाद इरियावहिया सूत्र अर्थ के उपयोगपूर्वक बोलना चाहिए । अर्थ की विचारणापूर्वक यह सूत्र बोलने से अपने प्रमाद के कारण या अनजाने में जो-जो हिंसादि पाप हुए हों उनका स्मरण होता है। पाप का स्मरण होने पर पाप के प्रति पश्चात्ताप का भाव उत्पन्न होता है और उसके द्वारा आत्मा की शुद्धि होती है। इस प्रकार शुद्ध हुई आत्मा चैत्यवंदन की क्रिया द्वारा सहजता से प्रभु के साथ तादात्म्य साध सकती है ।
इरियावहिया सूत्र बोलने के बाद भी अवशिष्ट पापों की विशेष शुद्धि के लिए 'तस्स उत्तरी' सूत्र बोलना चाहिए । उसके बाद पापकर्मों के नाश के लिए ‘कायोत्सर्ग' में कितनी छूट रखनी चाहिए और कायोत्सर्ग किस प्रकार करना चाहिए वगैरह बतानेवाला 'अन्नत्थ' सूत्र बोलना चाहिए ।
उसके बाद (चंदेसु निम्मलयरा तक) एक लोगस्स का कायोत्सर्ग करना है। उसमें शुद्ध स्वरूप को प्राप्त चौबीस तीर्थंकर परमात्मा को स्मृति में लाकर अपनी आत्मा को शुद्ध करने का प्रयत्न करना चाहिए। कायोत्सर्ग से आत्मशुद्धि होने पर उसके आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रकट लोगस्स कहना चाहिए ।
१. उसके बाद तीन खमासमण देकर, 'इच्छाकारेण संदिसह भगवन् ! चैत्यवंदन करूँ ?' ऐसा आदेश माँगकर, 'इच्छं' कहकर आदेश को स्वीकार करें।
जैनशासन की यह मर्यादा है कि, कोई भी कार्य करने से पहले गुणसंपन्न आत्मा की उस विषय में क्या इच्छा है, वह जान लें और जानकर उनकी