________________
३३०
सूत्र संवेदना - २
हाथ को योगमुद्रा में स्थापित करके, जिन की वंदना के लिए चैत्यस्तव अर्थात् अरिहंत चेइयाणं० सूत्र बोलना है। इस सूत्र से अर्हत्-चैत्यों का आलंबन लेकर उनके वंदन से प्राप्त होने वाले उत्तम फल को प्राप्त करने के लिए श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षापूर्वक एक नवकार का कायोत्सर्ग करना चाहिए।
नमस्कार महामंत्र का स्मरण करते-करते मन-वचन-काया की एकाग्रतापूर्वक शुभध्यान में लीन होने के प्रयत्न रूप यह कायोत्सर्ग की क्रिया मुख्य
चैत्यवंदन स्वरूप है। इसलिए यह कायोत्सर्ग की क्रिया ऐसे करनी चाहिए, जिससे वीतराग भाव के अत्यंत नज़दीक जा सकें। फिर कायोत्सर्ग की पूर्णाहुति स्वरूप 'नमो अरिहंताणं' पद का उच्चारण करना और उसके बाद जिस परमात्मा के सामने हों, उनकी स्तवना स्वरूप थुई या स्तुति बोलना चाहिए।
३. अंत में एक खमासमण दें ।
अंत में पुनः परमात्मा को वंदन करने रूप एक खमासमण की क्रिया करनी चाहिए। मध्यम चैत्यवंदन :
१. प्रथम एक खमासमण देकर खड़े होकर इरियावहिया०९, तस्स उत्तरी०, अन्नत्थ० कहकर चंदेसु निम्मलयरा तक एक लोगस्स का (न आए, तो चार नवकार का) काउस्सग्ग करें, काउस्सग्ग पारकर ('नमो अरिहंताणं' कहकर) प्रगट लोगस्स सूत्र बोलें ।
सबसे पहले खमासमण सूत्र द्वारा गुणसंपन्न आत्मा को वंदन करना चाहिए। उसके बाद खड़े होकर घर से मंदिर तक आते हुए या द्रव्यपूजा 4 योगमुद्रा में दो हाथ की दस अँगुलियों को आमने-सामने एक-दूसरे के अंतर मैं भराकर हथेली
का आकार कमल के डोडा जैसा करके दो हाथ की कोहनियों को पेट के ऊपर रखना होता है। 5 मध्यम चैत्यवंदन : निस चैत्यवंदन में अरिहंत चेइयाणं, अन्नत्थ, एक नवकार का काउस्सग्ग
और पारकर एक स्तुति बोली जाए, वह एक दंडक और एक स्तुतिवाली मध्यम चैत्यवंदना कहलाती है। अन्य माचार्य दो अथवा तीन, नमोऽत्यु णं वाली मध्यम चैत्यवंदना कहते हैं । 6 जघन्य या मध्यम चैत्यवंदना ईरियावही प्रतिक्रमण के बिना भी की जाती है, जब कि उत्कृष्ट
चैत्यवंदन तो 'निसीहि' बोलकर ईरियावही प्रतिक्रमणपूर्वक ही शुरू की जाती है ।