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________________ ३२० सूत्र संवेदना - २ तं धम्म-चक्कवदि अरिट्टनेमि नमसामि - उन धर्म चक्रवर्ती नेमिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ । चक्ररत्न द्वारा छः खंड के विजेता बनकर, छहों खंडों में जिन्होंने अपना साम्राज्य फैलाया है, वे भौतिक क्षेत्र में चक्रवर्ती कहलाते हैं । उसी प्रकार पाँच इन्द्रिय और छठे मन के विजेता बनकर, घनघाति कर्म का नाश करके, केवलज्ञानादि गुणसंपत्ति को प्राप्त करके, जिन्होंने स्व और पर के लिए चार गति को छेदनेवाले ऐसे धर्म रुप चक्र का उपयोग किया है, उनको धर्मचक्रवर्ती कहा जाता है। धर्म के चक्रवर्ती नेमिनाथ भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ। चत्तारि अट्ठ दस दोय वंदिया जिणवरा चउव्वीसं - चार, आठ, दस और दो (इस प्रकार अष्टापद पर्वत के ऊपर स्थापन किए गए) वंदन किए हुए चौबीसों जिनेश्वर । अष्टापद पर्वत के ऊपर श्री भरत चक्रवर्ती ने सिंह निषद्या नाम का प्रासाद (देरासर) बनाकर उसमें दक्षिणादि दिशा के क्रम से चार, आठ, दस और दो ऐसे चौबीस जिनेश्वरों की प्रतिमाओं को प्रतिष्ठित किया था। उन प्रतिमाओं को मन में उपस्थित करके इस पद द्वारा वंदन करना है । परमट्ठ-निट्ठिअट्ठा, सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु - परमार्थ को प्राप्त किए हुए कृतकृत्य सभी सिद्ध भगवंत मुझे मोक्ष दें! - सभी आस्तिक धर्मों का अंतिम प्रयोजन मोक्ष है । सिद्ध भगवंतों ने अंतिम ध्येय स्वरूप मोक्ष प्राप्त किया है, इसलिए अब वे कृतकृत्य हो गए हैं । उनके लिए अब करने योग्य कुछ भी बाकी नहीं रहा, उनको कुछ पाने की या भुगतर्म की इच्छा भी नहीं है और उसके लिए वे प्रयत्न भी नहीं करते, अतः सिद्ध भगवंत परमार्थ से निष्ठित अर्थवाले कहलाते हैं। निष्ठित अर्थात् पूरा हुआ और अर्थ अर्थात् प्रयोजन । सिद्ध भगवंतों ने मोक्ष प्राप्त करने रूप अपना ध्येय प्राप्त कर लिया है, इसलिए वे निष्ठित अर्थवाले
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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