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________________ सिद्धाणं बुद्धाणं सूत्र कहलाते हैं। ‘परमार्थ से’ प्रयोजन सिद्ध ऐसा कहने से संसार में रहे हुए केवली भगवंतों की गिनती नहीं होती, क्योंकि केवली भगवंतों ने अपना कार्य पूरा कर लिया है, ऐसा व्यवहार से कहा जाता है; परन्तु निश्चय से या परमार्थ से तो मात्र सिद्ध भगवंत ही निष्ठित अर्थवाले हैं क्योंकि केवलज्ञानी भगवंत को चार घातिकर्म खत्म करने बाकी हैं, इसीलिए वे निश्चय से निष्ठित अर्थवाले नहीं कहलाते, परन्तु व्यवहार से ऐसा कह सकते हैं । परमार्थ से तो मात्र सिद्ध भगवंत ही निष्ठित अर्थवाले हैं । ३२१ यह गाथा बोलते हुए साधक सिद्ध भगवंतों को संबोधित करके, उनको हृदयकमल में बिराजमान करके, समक्ष रहे सिद्ध भगवंतों से प्रार्थना करते हुए कहता है, 'हे सिद्ध भगवंत ! सभी कर्मों का क्षय कर आपने जो सिद्धिगति प्राप्त की है, आप जो आत्मानंद का अनुभव कर रहे हैं, स्वाधीन सुख में मग्न हैं, वह सुख, आनंद और गति मुझे भी प्रदान करें । वर्तमान में न दे सकें, तो उसकी प्राप्ति का प्रयत्न भी आप प्राप्त करवाएँ और परंपरा से वहाँ तक पहुँचाइए ।' यह प्रार्थना एक अभिलाषारूप है और ऐसी अभिलाषा ही सिद्धपद की प्राप्ति के उपाय रूप जो श्रुत धर्म और चारित्र धर्म है - ज्ञान और क्रिया का मार्ग है, उस मार्ग में सुदृढ़ प्रयत्न करवाने में कारण बनती है। जिसकी अभिलाषा न हो, उसकी प्राप्ति के लिए पुरुषार्थ भी नहीं होता ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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