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________________ २९२ सूत्र संवेदना - २ करके मुझे सुखी बनाएँगा । धन्य है यह 'श्रुतज्ञान' । मैं उसे वंदन करता हूँ और उसकी उपासना करने के लिए कटिबद्ध बनता हूँ ।' अब श्रुतज्ञान का अंतिम कार्य इस पद द्वारा बताते हैं - जाइ - जरा - मरण - सोग-पणासणस्स जन्म, वृद्धावस्था मरण और शोक का नाश करनेवाले । ( श्रुतज्ञान को में वंदन करता हूँ ।) इस संसार में सभी प्राणियों का जन्म और मृत्यु निश्चित है और जन्म और मृत्यु के बीच रोग, शोक, वृद्धावस्था आदि भी सम्भवित है । किसी भी उपाय से जीव इस जन्म, मरण, रोग या शोक की चंगुल से नहीं बच सकता। इन पीड़ाओं से मुक्त होने का एकमात्र मार्ग है श्रुतज्ञान । जैसे-जैसे साधक श्रुत का अध्ययन करता है, वैसे-वैसे उसे सम्यग् ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है । इस ज्ञान के प्रकाश में वह मोह को पहचानने लगता है, तथा सतत प्राप्त होनेवाली जन्म की पीड़ा, मृत्यु के समय का डर और जन्म-मृत्यु के बीच आनेवाले रोग, शोक आदि की पीड़ा को समझ सकता है, देख सकता है और सभी पीड़ाओं का कारण आत्मा का कर्म के साथ संबंध है, वह स्पष्टता से जान सकता है। आगमों के भावों को बारबार सोचने से उसे यह भी समझ में आता है कि, आत्मा, मन, वचन, काया के योग के कारण ही कर्म के साथ संबंधित होती है । ऐसा ज्ञान होने के बाद साधक मन, वचन, काया के व्यापार के गोपन रूप गुप्ति के मार्ग पर आगे बढ़ता है और बाह्य भाव में प्रवृत्त होनेवाले योगों को रोककर उन्हें आत्मभाव में लीन करता है । अंत में सूक्ष्म प्रकार से सक्रिय मन, वचन काया के योगों का निरोधकर सर्व संवरभाव के सामायिक द्वारा 5 कर्मबंध के मुख्य चार हेतु हैं । मिथ्यात्व, अविरति, कषाय एवं योग, परन्तु इन चार हेतुओं का सूक्ष्मता से मन-वचन-काया रूप तीन योग में समावेश हो जाता है और चारों में से योग ही अंत तक रहता है । सबसे अंतिम योगनिरोध होने पर कर्मास्रव संपूर्ण बंद होते हैं। इसलिए योग को मुख्य रूप से कर्मबंध का कारण कहा गया है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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