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पुक्खरवरदी सूत्र
. २९१ शास्त्र के अध्ययन के बिना संसारी जीव तो बेचारे मोह की जाल को देख भी नहीं सकते, तो भेदने की तो बात ही कहाँ ? जब कि शास्त्रवेत्ता पुरुष इस जाल को अच्छी तरह देखते हैं, जानते हैं और सत्त्व पूर्वक उसका नाश भी कर सकते हैं । विषम कोटि की इस जाल को भेदने का सामर्थ्य जिससे प्रगट होता है, उस श्रुतज्ञान को हृदय के सद्भावपूर्वक इस पद द्वारा हमें प्रणाम करना है ।
जिज्ञासा : श्रुतज्ञान का कार्य तो बोध करवाने का है, तो श्रुतज्ञान से मोह का नाश कैसे होता है ?
तृप्ति : बात सच है। श्रुतज्ञान का साक्षात् कार्य तो पदार्थ का सम्यग् बोध करवाने का है । सम्यग् प्रकार से हुआ पदार्थ का बोध ही मोह उत्पन्न नहीं होने देता । जड़ पदार्थों में जो आसक्ति होती है और रागादि कषाय जो मीठे लगते हैं, उसका कारण सच्ची समझ का अभाव है । श्रुतज्ञान वस्तुस्थिति का सच्चा ज्ञान देता है । उससे ही श्रुतज्ञान का अभ्यासी जड़ पदार्थ में कभी लिप्त नहीं होता और आत्मा के गुणों में याने स्वभाव में प्रवृत्ति किए बिना नहीं रहता । श्रुत के सहारे स्वभाव में होनेवाली प्रवृत्ति और विभाव से होनेवाली निवृत्ति ही मोह का नाश करती है ।
हेय-उपादेय वस्तु का बोध करवाना, यह श्रुतज्ञान का प्रथम कार्य है, बोध के अनुसार जीवन को मर्यादित करना, यह श्रुतज्ञान का दूसरा कार्य है। मर्यादित जीवन द्वारा मोह का नाश करना, यह श्रुतज्ञान का तीसरा कार्य है और अमोही होकर जन्म, जरा और मरण के कारणभूत कर्म का नाश करना, यह श्रुतज्ञान का चौथा कार्य है । यह गाथा बोलते समय सोचना चाहिए 'राजा, महाराजा और देव भी जिसकी पूजा करते हैं, वह श्रुतज्ञान ही मेरे अंतर में रहे अंधकार को दूर कर, मोह की जाल में फँसी हुई मेरी आत्मा को मुक्त करके मेरे भवोभव के भ्रम का नाश