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पुक्खरवरदी सूत्र
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पप्फोडिय-मोहजालस्स-जिसने मोह के जाल को तोड़ दिया है (ऐसे श्रुतज्ञान को मैं वंदन करता हूँ।) |
अनादिकाल से मोह ने ‘यह शरीर मैं हूँ और बाह्य सामग्री मेरी है ।' ऐसी मिथ्यामान्यतारुप जगत में एक बड़ी जाल बिछाई है । शिकारी जैसे जाल बिछाकर भोले हिरणों को फँसाते हैं, वैसे मोह बुद्धि में मिथ्या मान्यता, विपर्यास - भ्रम आदि रूप जाल को बिछाकर जगत् के जीवों को फँसाता है, दुःखी करता है। श्रुतज्ञान इस मोह के जाल को तोड़ डालता है ।
साधक जब गुरु आदि के विनयपूर्वक शास्त्राभ्यास करते हैं, शास्त्र में बताए मार्ग पर सम्यक् प्रकार से जीवादि तत्त्व की गवेषणा करते हैं और तत्त्व के रहस्य को प्राप्त करने के लिए अथक प्रयास करते हैं, तब उनके अंतर में परम विवेक प्रकट होता है । विवेकपूर्वक विशेष प्रकार का प्रयत्न करने से उनका भ्रम टूटता है। शरीर से मैं अलग हूँ, मुझे शरीर के साथ कुछ लेना-देना नहीं है, वह समझ में आता है। भव की सभी चेष्टाएँ कर्मकृत हैं, कर्मकृत विचित्रता मेरा स्वरूप नहीं है। कर्म के कारण प्राप्त ये सभी अवस्थाएँ तो मात्र रंगभूमि पर चलते नाटक का अभिनय रूप हैं। जैसे नाटक के मंच के ऊपर राजा या रंक, सेठ या साहुकार मात्र नाटक के काल तक हैं । उसी प्रकार कर्म है, तब तक यह मेरी भिन्न-भिन्न अवस्थाएँ हैं। परन्तु वास्तव में यह मेरा स्वरूप नहीं है । मैं तो इससे भिन्न अनंतज्ञानादि स्वरूप वाली आत्मा हूँ । कर्मजनित सभी पर्यायमुझ से भिन्न हैं। ऐसा मानने के कारण उसे कभी भी ममत्व नहीं होता। यह मेरा है, वैसा भ्रम नहीं होता । परिणामतः वह उसमें लिप्त नहीं होता। किसी भी बाह्य भाव में उसे आसक्ति नहीं होती, उसका मन सतत अंतरभाव को,
आत्मभाव को चाहता है । उसको प्राप्त करने के लिए मेहनत करता है। बाह्य भाव में अनासक्ति और आत्मिकभाव को प्राप्त करने की चाहना, वही दर्शन मोहनीय कर्म द्वारा बिछाए हुए भ्रम या बुद्धि में विपर्यासरूप जाल का नाश है ।