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________________ सूत्र संवेदना - २ श्रुतज्ञान जीवन को मर्यादित करता है जैसे-जैसे साधक आत्मा के जीवन में श्रुतज्ञान परिणत होता है, वैसे-वैसे उसका जीवन मर्यादित बनता जाता है । उसके भव की परंपरा सीमित होती है और कर्म का बंध भी मर्यादित होता जाता है । २८८ साधक जैसे-जैसे शास्त्रग्रंथों का श्रवण पठन, चिंतन, मनन करते हैं, वैसे-वैसे उन्हें हिंसादि पापप्रवृत्ति के अपायों का ज्ञान होता है। उससे बंध कर्म और कर्म के कटु फल का उन्हें ज्ञान होता है। उसके कारण उनमें पापभीरूता उत्पन्न होती है, उनकी स्वार्थवृत्ति शिथिल होती है, अन्य के सुख-दुःख के प्रति उनके अंतर में सहानुभूति जगती है । इसीलिए वे हिंसा, झूठ, चोरी आदि अनाचारों से अपने आप को दूर रखकर आत्महितकर, दया, दान, तपादि में प्रवृत्त होते हैं । क्षमादि गुणों के विकास के लिए प्रयत्न करते हैं। 1 श्रुतज्ञान से परिणत हुए मुनियों का जीवन तो और भी मर्यादित होता है क्योंकि उनका मन समिति - गुप्तिमय होता है। वे अपने मन-वचन-काया के योग का अनावश्यक उपयोग नहीं करते और ज़रूरत पड़ने पर भी अपनी मर्यादा में रहकर ही प्रवृत्ति करते हैं । उससे वे किसी भी जीव को पीड़ा न हो, उस प्रकार नीचे देखकर चलते हैं, सभी के हित को ध्यान में रखकर हित - मित- पथ्य ऐसे सत्य वच्चन बोलते हैं, निर्दोष आहार की गवेषणा करते हैं, किसी भी चीज़ को लेते-रखते समय देखकर, प्रमार्जन करके ही लेते हैं और रखते हैं और संपूर्ण निर्जीव भूमि में ही अनुपयोगी चीजों का पारिष्ठापन-विसर्जन करते हैं। इस श्रुतज्ञान के कारण मुनियों का जीवन मर्यादित बनने से क्रूम के बंधन कटते हैं और भव की परंपरा भी घटती जाती है । इस तरह श्रुतज्ञान अमर्यादित संसार को मर्यादित करनेवाला है, इस श्रुतज्ञान को आदरपूर्वक किया गया यह नमस्कार मर्यादापूर्वक जीवन जीने में सहायक बनता है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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