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पुक्खरवरदी सूत्र
२८७ निकाचित-अनिकाचित सभी कर्मों का नाश करके चिलातीपुत्र अंत में केवलज्ञान तक पहुंच गए। यह पद बोलकर ऐसे अचिंत्य शक्तियुक्त श्रुतज्ञान को स्मृति में लाकर अहोभाव से हमें उसे नमस्कार करना चाहिए।
श्रुतज्ञान अज्ञान का नाश करता है, वह बताकर अब इस श्रुतज्ञान की पूजा किसने की यह बताते हैं -
सुरगण-नरिंद-महियस्स - देवों के समुदाय और राजाओं द्वारा पूजे गए (श्रुतज्ञान को मैं वंदन करता हूँ ।)
जिन्हें उच्च स्तर का भौतिक सुख प्राप्त हुआ है, महा ऋद्धि-समृद्धि के जो स्वामी हैं, बुद्धि में जो बृहस्पति तुल्य हैं, वैसे देव, देवेन्द्र तथा नवनिधान जिनके कदम-कदम पर चलते हैं, चौदह रत्न के जो मालिक हैं, छः खंड के जो विजेता हैं, ३२००० राजा जिनके चरण चूमते हैं, १ लाख और ९२ हजार का जिनका अंतःपुर (स्त्रियाँ) है, ऐसे चक्रवर्ती राजा भी श्रुतज्ञान
और श्रुतज्ञानी की अनेक प्रकार से पूजा-भक्ति करते हैं । वे समझते हैं कि विडंबना से भरे इस संसार का निस्तार श्रुतज्ञान के बिना संभव नहीं है । इसीलिए वे अपने भोगविलास और सुखों को छोड़कर, तीर्थंकर की देशना सुनने जाते हैं । एकाग्र चित्त से परमात्मा की देशना सुनते हैं । सुने गए वचनों पर ठीक से विचार करते हैं, उनके ऊपर चिंतन-मनन करते हैं। देवलोक में भी वे यथाशक्ति श्रुत का अध्ययन करते हैं और श्रुतधर महापुरुषों के संयम की सुरक्षा करते हैं, उनकी स्तवना करते हैं; गीत, नृत्य
और सुगंधित द्रव्य से उनकी पूजा करते हैं। इस प्रकार श्रुतज्ञान की उपासना करने के कारण वे विशिष्ट भोगों में भी आसक्त नहीं होते, तीव्र राग से रंगते नहीं, जिसके कारण तीव्र कर्मबंध से वे मुक्त रह सकते हैं । ये सब प्रभाव सम्यग्दर्शन पूर्वक सम्यग्ज्ञान का है ।
सीमाधरस्स वंदे-सीमा-मर्यादा को धारण करनेवाले (श्रुतज्ञान को) मैं वंदन करता हूँ।