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सूत्र संवेदना - २ रसगारव, ऋद्धिगारव या शातागारव के अधीन होकर प्राप्त हुए सद्गुणों को गँवा देते हैं । फिर भी श्रुतज्ञान से पड़े हुए शुभ संस्कार नष्ट नहीं होते, समय आने पर वे श्रुतज्ञान के संस्कार उन्हें पतन की खाई से पुनः उत्थान की दिशा में आगे बढ़ाकर परमानंद तक पहुँचाते हैं, इसलिए श्रुतज्ञान निरर्थक नहीं है, सार्थक ही है ।
श्रुतज्ञान का विचार करते हुए यह भी ध्यान में रखें कि, श्रुतज्ञान मात्र बोले जानेवाले या लिखे हुए शब्द स्वरूप नहीं है, बल्कि शब्द के सहारे आत्मा में जो मोहनीय कर्म के क्षयोपशम सहकृत जो श्रुतज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है कि जिसके सहारे पदार्थ का यथार्थ बोध होता है, हेय-उपादेय का विवेक प्रकट होता है, वह क्षयोपशम स्वरूप श्रुतज्ञान है। ___ जब जीव चरमावर्त काल में आता है और उसके रागादि भावमल अल्प होते हैं, तब ऐसा श्रुतज्ञान प्रकट होता है। जो जीव चरमावर्त में न आए हो, जिनके रागादि भावमल दूर न हुए हो, वैसे जीव किसी निमित्त को पाकर शास्त्राभ्यास करें, तो भी उन्हें शास्त्रज्ञान यथार्थ बोध करवाकर हेय-उपादेय का विवेक नहीं करवा सकता। इसमें श्रुतज्ञान का दोष नहीं है, बल्कि जीव की योग्यता की कमी है। ऐसे जीव कभी श्रुतज्ञान पाकर दुर्गति में जाए, तो उसमें कारण श्रुतज्ञान नहीं, उनकी अयोग्यता ही कारण है । श्रुतज्ञान के तो दो-चार शब्द भी अगर कान में पढ़ें और उसके ऊपर चिंतन-मनन शुरू हो, तो आत्मा उसके परमार्थ को पाकर निहाल हो जाती है।
जब महापापी चिलातीपुत्र की योग्यता खिली और भाग्योदय से सद्गुरु का संयोग हुआ, तब उनकी योग्यता देखकर गुरु ने उनको मात्र श्रुतज्ञान के तीन शब्द 'उपशम-विवेक-संवर' सुनाए । चिलातीपुत्र ने इन तीन शब्दों के ऊपर चिंतन शुरूं किया । इन शब्दों का चिंतन करते-करते उनके अज्ञान के पटल नष्ट हो गए और अंतर में ज्ञान का प्रकाश फैला। ज्ञान के माध्यम से स्व-पर का विवेक जागृत हुआ। आत्मा से भिन्न शरीरादि पदार्थों के प्रति वे निःस्पृह बने, ध्यान का अनल प्रकट हुआ। इस ध्यान की अग्नि से