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________________ पुक्खरवरदी सूत्र २८५ जैसे-जैसे साधक सम्यक् प्रकार से श्रुत का अध्ययन करती है, शास्त्र के एक-एक शब्द का गहन चिंतन, मनन करता है, उससे प्राप्त हुए भावों से आत्मा को भावित करता है, वैसे-वैसे आत्मा के ऊपर से अज्ञान के आवरण हटते जाते हैं और सम्यग् ज्ञान का प्रकाश होता है। इस प्रकाश में साधक जीव- अजीव आदि तत्त्वों को सम्यक् प्रकार से जान सकता है । सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति होते ही साधक की भौतिक सुख की इच्छाएँ मंद होती हैं और आत्मिक सुख प्राप्त करने की इच्छा तीव्र - तीव्रतर होती जाती है । कषायों की मात्रा घटती जाती है और उपशम भाव का आनंद बढ़ता जाता है। अज्ञान के साथ जुडी हुई ईर्ष्या, असंतोष, असहिष्णुता आदि नकारात्मक वृत्तियाँ विलीन होती जाती हैं तथा संतोष, सहिष्णुता वगैरह सुखद सद्गुण प्रकट होते हैं । जिज्ञासा : यदि श्रुतज्ञान अज्ञानरूपी अंधकार का नाश करता है, तो शास्त्र में पूर्वधर महापुरुष भी दुर्गति में गए ऐसे उदाहरण कैसे सुनाई देते हैं ? पूर्वधर महापुरुष दुर्गति में गए, इसमें श्रुतज्ञान कारण नहीं है, परन्तु शास्त्राभ्यास के पूर्व बांधे हुए अशुभ कर्म के अनुबंध हैं; क्योंकि चौदह पूर्व के अभ्यासी महात्मा नियमतः सम्यग्दृष्टी और छट्ठे-सातवें गुणस्थानक वाले होते हैं, परम विवेकसंपन्न होते है । इसके बावजूद भी जब पूर्वकृत अशुभ कर्मों के अनुबंध' उदय में आते हैं, तब खराब निमित्तों से उनका पतन होता है, वे प्रमाद के वश होते हैं, स्वाध्याय का रस मंद होता है । 2. एतस्य अशुभानुबन्धस्य प्रभावेण अप्रतिहतशक्तित्वेन बहवः अनन्त संसारिणः प्राप्तदर्शनाश्चतुर्दशपूर्वधरादयोऽपि इति दृश्यम्, श्रूयते हि प्राप्तदर्शनादीनामपि प्रतिपतितानां पुनस्तद् गुणलाभ व्यवधानेऽनन्तः कालः समये । तदुक्तं - कालमणंतं च सुए अध्यापरिअट्टओअदेसूणो । आसायण बहुलाणं, उक्कोसं अन्तरं होई । ।त्ति ।। स चाशुभानुबन्धमाहात्म्यं विना नोपपद्यते, न ह्यवश्यं वेद्यमशुभानुबन्धमन्तेरण प्रकृतगुणभंगे पुनर्लब्धौ कियत्कालव्यवधाने कश्चिदन्यहेतुरस्ति ग्रन्थिभेदात् प्रागट्य सकृदनन्तसंसारार्जनेऽस्यैव हेतुत्वात् गंठिओ आरओ वि हु असइबन्धो ण अन्नहा होइ ताए सो वि हु एवं णेओ असुहाणुबंध ।। ( उपदेश रहस्य गाथा - ६२ टीका ) -
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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