SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 305
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २८४ सूत्र संवेदना - २ यह गाथा बोलते हुए सोचना चाहिए “परिमित क्षेत्र में रहा हुआ सूरज जैसे अपरिमित क्षेत्र को प्रकाशित करता है, वैसे अढाई द्वीप के परिमित क्षेत्र में जन्म लेनेवाले और विचरनेवाले तीर्थंकर परमात्मा अपने श्रुतज्ञान के किरणों से संपूर्ण विश्व को प्रकाशित करते हैं, इसके बावजूद उल्लू जैसा मैं श्रुतधर्म के प्रकाश को प्राप्त न कर सका । हे विश्वोद्योतकर श्रुतधर पुरुषों ! मस्तक झुकाकर आप से प्रार्थना करता हूँ कि आपकी तरह प्रकाश फैलाने की शक्ति मेरे में नहीं हैं; परन्तु आपके फैलाए हुए प्रकाश की सहायता से आत्म कल्याण करने की शक्ति मुझ में प्रकटे, ऐसी कृपा कीजिएँ ।” तम-तिमिर-पडल-विद्धंसणस्स - अज्ञानरुपी अंधकार के पटल का नाश करनेवाले (ऐसे श्रुतज्ञान को मैं वंदन करता हूँ ।) आत्मा के ऊपर छाए हुए अज्ञान रूपी अंधकार को दूर करके ज्ञान के प्रकाश को फैलाने का काम श्रुतज्ञान करता है । इसलिए श्रुतज्ञान को “तम-तिमिर पडल-विद्धंसणस्स" कहा जाता है । साधना क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए श्रुतज्ञान दीपक का कार्य करता है। दीपक जिसके हाथ में हो, वह मुसाफिर घोर अंधेरी रात्रि में भी गन्तव्य पर पहुँच सकता है। उसी प्रकार शास्त्ररूपी दीपक जिसके हाथ में हो, वैसा साधक खुद अज्ञानी होने पर भी शास्त्र के सहारे मोक्षमार्ग को पा सकता है । 1. १. 'तम' अर्थात् अज्ञान और प्रतिमिर' अर्थात् अंधकार । 'तम-तिमिर' अर्थात् अज्ञानरूप अंधकार। ज्ञानावरणीय कर्म के उदय के कारण जो पदार्थ जैसा हो वैसा लगता नहीं है । ऐसे प्रकार के बोध का अभाव, वही जीव के लिए अज्ञानरूप अंधकार है । २. 'तम' अर्थात् अंधकार और 'तिमिर' अर्थात् गहरा अंधकार । गुरु आदि के उपदेश से या शास्त्राभ्यास से जो अज्ञान सरलता से नाश हो उसे 'तम' कहा जाता है और विशेष प्रयत्न से जो अज्ञान नाश हो उसे 'तिमिर' कहते हैं । ३. 'तम' अर्थात् बद्ध, स्पृष्ट और निधत्तरूप ज्ञानावरणीय कर्म और 'तिमिर' अर्थात् निकाचित ज्ञानावरणीय कर्म । बद्ध, स्पृष्ट और निधत्त प्रकार के ज्ञानावरणीय कर्म का आत्मा के साथ संबंध 'तम' है और निकाचित कोटि के ज्ञानावरणीय कर्म का आत्मा के साथ संबंध 'तिमिर' है। श्रुतज्ञान इन तीनों प्रकार के 'तम-तिमिर' का नाश करता है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy