SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुक्खरवरदी सूत्र शब्द रूप में रचित इन शास्त्रों का श्रवण-चिंतन-मनन आत्मा को दुर्गति में जाने से बचाता है, इसलिए यह श्रुतज्ञान ही अपेक्षा से श्रुतधर्म है । भगवान का शासन इसी श्रुत के आधार पर चलता है । इस श्रुतज्ञान का अवलंबन लेकर आज तक अनंत आत्माओं ने मोक्ष के महासुख को प्राप्त किया है। आज भी जगत् में जो कोई सुख, शांति और समाधि दिखाई देती है, उसका मूल कारण यही श्रुतज्ञान है । २८३ ऐसे हितकर श्रुतधर्म का माहात्म्य जिसने जाना हो, उसकी परम उपकारिता जिसकी बुद्धि में बैठी हो, उस व्यक्ति को श्रुतज्ञान का प्रारंभ करनेवाले परमात्मा के प्रति भक्ति होती ही है । इसीलिए इस श्रुत की स्तवना करने से पहले श्रुत के पिता तुल्य अरिहंत परमात्मा की इन पदों द्वारा वंदना की है । जिज्ञासा : यहाँ धर्म का प्रारंभ करनेवाले परमात्मा की वंदना की गई है, परन्तु परमात्मा को श्रुतधर्म का प्रारंभ करनेवाले कैसे कह सकते हैं, क्योंकि श्रुतधर्म तो अनादिकाल से है ? तृप्ति : प्रवाह से श्रुतज्ञान अनादिकाल से है यह बात सही है, तो भी श्रुतधर्म का प्रारंभ तो है ही । जैसे नदी का पानी सदा बहता रहता है, नदी प्रवाह से अनादि होने के बावजूद पानी की दृष्टि से सोचें तो पानी नया ही रहता है। वही का वही पानी सदा के लिए कभी नहीं रहता, उसी प्रकार महाविदेह क्षेत्र की अपेक्षा से सोचें तो जगत् में श्रुतज्ञान भले अनादिकाल से है, तो भी अर्थ से एक होने पर भी शब्द रचना की दृष्टि से उन-उन तीर्थंकरों की अपेक्षा से नवीन द्वादशांगी, नए-नए ग्रंथों की रचना होती है। उस अपेक्षा से श्रुत की आदि भी कहलाती है और त्रिपदी देने के द्वारा उसका प्रारंभ करनेवाले तीर्थंकर को श्रुतज्ञान की आदि करनेवाले भी कहते हैं । श्रुतज्ञान अर्थ से अनादि है और शब्द से सादि है और उसे करनेवाले भी है, ऐसा कहने से जो लोग आगम को अपौरुषेय मानते हैं, उनकी बात का खंडन होता है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy