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सूत्र संवेदना - २
जितना मनुष्य क्षेत्र है। किसी भी मनुष्य का जन्म मरण उतने ही क्षेत्र में
होता है।
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भरहेरवय - विदेहे - भरत, ऐरवत एवं विदेह नाम के क्षेत्र में ।
ऊपर बताए गए अढ़ाई द्वीप में कुल ४५ क्षेत्र हैं । उनमें पाँच भरत, पाँच ऐरवत एवं पाँच महाविदेह ये पंद्रह क्षेत्र, कर्मभूमि कहलाते हैं। तीर्थंकर कर्मभूमि में ही जन्म लेते हैं एवं कर्मभूमि में ही वे मोक्षमार्गरूपी धर्म की स्थापना करते हैं। इसलिए इस पद में भरतादि क्षेत्रों का उल्लेख किया गया है
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धम्माइगरे नमसामि - धर्म की शुरूआत करनेवालों को मैं नमस्कार करता हूँ ।
भरतादि क्षेत्र की पंद्रह कर्मभूमि में जन्म से लेकर तीर्थंकर पद को प्राप्त करके, जिन्होंने श्रुतधर्म का प्रारंभ किया है, वैसे आज तक हुए अनंत तीर्थंकरों को इस पद द्वारा नमस्कार किया गया है ।
दुर्गति में गिरते हुए प्राणियों को जो धारण कर रखे, उसे धर्म कहते हैं। यह धर्म श्रुत एवं चारित्र के भेद से दो प्रकार का है। उसमें भगवान के वचनों का जिसमें संग्रह हुआ हो, वैसे शास्त्र या आगमग्रंथ को श्रुतधर्म/ श्रुतज्ञान कहते हैं एवं भगवान इस श्रुतज्ञान की आदि प्रारंभ करनेवाले कहलाते हैं।
केवलज्ञान की प्राप्ति होने के बाद परमात्मा धर्म की देशना देते हैं। यह धर्म की देशना सुनने के बाद बीज बुद्धि के एवं सर्वाक्षर संनिपातिनी लब्धि के स्वामी ऐसे गणधर भगवंत जगत् के भावों को यथार्थ रूप से जानते हैं। जाने हुए इन भावों को वे शब्द देह देते हैं । उनकी इस शब्दात्मक रचना को द्वादशांगी कहते हैं। द्वादशांगी की रचना ही श्रुतधर्म का प्रारंभ है। उसके बाद के गीतार्थ गुरु भगवंतों ने उस द्वादशांगी के विस्तार रूप अनेक आगम ग्रंथों-शास्त्रों-प्रकरणों वगैरह की रचना की, जिसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं ।