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सूत्र संवेदना
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(२) समर्थ :
अनुष्ठान के लिए शास्त्र में जो विधि बताई गई हो, उस विधि के पालन की क्षमता और तत्परतावाले को समर्थ कहते हैं । विधिमार्ग के सेवन में दृढ रहकर; लोगों की परवाह न करना, उस मार्ग का सेवन करते हुए कभी अबोध या अधर्मी लोग नाराज़गी व्यक्त करें या अशिष्ट और अज्ञानी लोग निंदा करे, तो उनके भय से आत्महितकर क्रिया का त्याग न करना, बल्कि उन सब की उपेक्षा करके, शास्त्रविधि के अनुसार कार्य करने को तत्पर रहना, समर्थता है ।
(३) शास्त्र में अनिषिद्धः
जिसे शास्त्रकारों ने धर्माचरण के लिए अयोग्य माना हो, उसे शास्त्र से निषिद्ध कहा जाता है । अपने कुल को कलंक लगे, अपनी आत्मा का अहित हो वैसे कार्य करनेवाले धर्म के लिए अयोग्य हैं, क्योंकि उन्हें धर्म प्रदान करने से धर्म की निंदा होने की संभावना रहती है । इसी कारण सूत्र, अर्थ वगैरह धर्म करने वाले इहलोक या परलोक के विरुद्ध कार्य करने वाले नहीं होने चाहिए, अपने कुल के लिए उचित और अनुकूल जीवन व्यवहार करने वाले होने चाहिए ।
सूत्र पढ़ने के एवं धर्म के अधिकारी के लिए अर्थी, समर्थ और शास्त्र में अनिषिद्ध ऐसे जो लक्षण बताएँ गये हैं, वे ऐसे जीवों को ही लागू होते हैं, जिनमें सूत्रादि के प्रति बहुमान का परिणाम हों, सूत्र और अर्थ पढ़ने की शास्त्र में बताई गई विधि का पालन करने की तत्परता हों और जिनका जीवन व्यवहार औचित्यपूर्ण हों ।
संसार में भी जो जीव जिसका अर्थी होता है वह जीव उसके प्रति बहुमान भाव वाला होता ही है और उस कार्य के लिए समर्थ वही जीव कहलाता है कि, जिसमें विधि के अनुसार कार्य करने की तत्परता हो । इसके अलावा कार्य के लिए निषेध उसको नहीं किया जाता जिसका अन्य व्यवहार भी योग्य हो ।