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सूत्र संवेदना - २
छोड़ना नहीं चाहिए । परमात्मा के गुणों की पहचान हों, उनके प्रति भक्ति और बहुमान की वृद्धि हो, इसके लिए सुयोग्य गुरु से 'नमोत्थुणं' आदि सूत्र और उसके अर्थ सुनने चाहिए, सुनने के बाद उसके ऊपर गहरा चिंतन करना चाहिए, बार-बार उसका परिशीलन करके आत्मा को उन भावों से भावित करने का सतत प्रयत्न करना चाहिए, उन भावों के लिए हृदयपूर्वक परमात्मा से ही प्रार्थना करनी चाहिए और सम्यग् चैत्यवंदन करने की भावना से ही उसके अभ्यास के रूप में बार-बार चैत्यवंदन करना चाहिए ।
इस प्रकार बार-बार चैत्यवंदन करने से धीरे-धीरे मोहनीय कर्म निर्बल होता है, बोध की निर्मलता प्राप्त होती है और परमात्मा के गुणों की पहचान ज्यादा गाढ़ बनती है, फलतः क्रिया करते-करते उनके सूक्ष्म भाव तक पहुँचा जा सकता है और क्रिया करने के संस्कार पड़ते हैं, इसलिए प्रभु के साथ तादात्म्य साधने के आशय से स्वच्छ अंतःकरण से मन-वचन-काया की शक्ति का पूर्ण उपयोग करके चैत्यवंदन का अभ्यास चालू रखना चाहिए, कभी भी चैत्यवंदन की क्रिया छोड़नी नहीं चाहिए ।
चैत्यवंदन की क्रिया अच्छी तरह करने की भावना होने पर भी अनेक प्रकार के मोहनीय आदि कर्म के प्रभाव से अच्छा चैत्यवंदन नहीं कर पाते । वैसे साधकों का यह चैत्यवंदन कुछ अंश में, शब्द के अनुरूप भाववाला न होने से, मायारूप है, फिर भी इस भाव तक पहुँचने का उनका सतत प्रयत्न, उसके लिए चैत्यवंदन द्वारा की जानेवाली मेहनत माया के प्रवाह को तोड़ देती है अर्थात् उन दोषों के अनुबंध को घटाती है, माया के संस्कारों को घटाती है, मंद करती है । इसीलिए ऐसे भाववाले को भी चैत्यवंदन तो चालू ही रखना चाहिएँ; क्योंकि इसी से प्रभु के गुणों के प्रति बहुमानभाव प्रगट होता है । क्रिया छोड़ देने से तो कभी भी भाव नहीं आएगा ।
चैत्यवंदना के सूत्र को पढ़ने का अधिकारी कौन ?
परमात्मा की भक्ति स्वरूप चैत्यवंदन की क्रिया को सम्यक् और