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भूमिका पदार्थ को देखने की दृष्टि से) चैत्यवंदन धर्म के अधिकारी विरतिवान सम्यग्दृष्टि जीव ही हैं ।
अपुनर्बंधक और अविरत सम्यग्दृष्टि जीवों में विरति के ऐसे परिणाम नहीं होते, इसलिए उन्हें निश्चयनय से चैत्यवंदन का अधिकारी नहीं माना जाता, फिर भी ऐसे जीवों का मिथ्यात्व मंद पड़ने से या नाश होने से उनका मन बाह्य और आभ्यंतर संसार से आंशिक विरक्त होता है, उनमें भी शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्रकट करने की आकांक्षा जगी होती है । इस भावना को फलीभूत करने का उपाय परमात्मा के वचनों में है, ऐसा वे जानते हैं, इसी कारण उन्हें परमात्मा के प्रति भक्ति और बहुमानभाव प्रकट होता है । बोध की सूक्ष्मता के अभाव में तथा चारित्र मोहनीय कर्म के उदय के कारण वे संपूर्णतया शास्त्रानुसारी क्रिया नहीं कर सकते, फिर भी उनकी इस आभ्यासिक क्रिया को व्यवहारनय मान्य रखता है और इसीलिए यह नय अपुनर्बंधकादि जीवों को भी चैत्यवंदन के अधिकारी के रूप में मानता है ।
उपर्युक्त दोनों प्रकार की साधक आत्माओं को स्थूल या सूक्ष्म प्रकार से परमात्मा के गुणों का ज्ञान होता है, गुणवान परमात्मा के प्रति समझदारी के अनुसार बहुमान का परिणाम होता है । गुण के प्रति अपना बहुमान व्यक्त करने वे जो चैत्यवंदना की क्रिया करते है वह सफल होती है । परंतु जिन्हें भगवान के गुणों की पहचान नहीं है, भगवान के गुणों के प्रति बहुमान का परिणाम भी नहीं है, ऐसी आत्मा की चैत्यवंदना की क्रिया को पू. आ. हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज ने ललितविस्तरा ग्रंथ में मायाचार याने एक प्रकार का आडंबर कहा है, क्योंकि चैत्यवंदना की यह क्रिया गुण के प्रति बहुमान भाव को बतानेवाली होती है । सूक्ष्म दृष्टि से देखें तो गुण के प्रति बहुमान के बिना, बहुमान सूचक चैत्यवंदन सूत्र भी मायाचार रूप ही लगते हैं।
यह बात निश्चयनय के अनुसार है। इसे सुनकर निश्चयनय संमत अधिकार को जो नहीं पा सकता, उन साधकों को डरना नहीं चाहिए । भगवान के प्रति बहुमान भाव नहीं है, इसलिए हमारी क्रिया मायारूप है, ऐसा मानकर क्रिया को