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________________ सूत्र संवेदना - २ अधिकारी हैं । वैसे तो अपुनर्बंधक आदि जीव भी चैत्यवंदन की क्रिया करते हैं, पर चैत्यवंदन के माध्यम से वे सीधे परमात्मा से एकाकार होने की भूमिका तक नहीं पहुंच पाते । प्रारंभिक कक्षा की ऐसी क्रिया द्वारा ही वे क्रमशः इस भूमिका तक पहुँच सकते हैं इसलिए व्यवहार नय उन्हें चैत्यवंदन के अधिकारी के रूप में स्वीकार करता है, पर निश्चय नय सिर्फ विरतिधर को ही चैत्यवंदन के अधिकारी के रूप में मान्यता देता है। । परमात्मा के गुणों में वही स्थिर हो सकता है, जिसे परमात्मा के गुणों का यथार्थ ज्ञान हो । ज्ञान भी मात्र बुद्धि के स्तर का नहीं, बल्कि आंतरिक प्रतीतिपूर्ण होना चाहिए । मिथ्यादृष्टि' जीव परमात्मा के गुणों को इस तरह जान नहीं सकते, फिर वे भक्ति कैसे करेंगे ? इसीलिए परमात्मा की भक्ति करने के लिए परमात्मा को देखने की शक्तिरूप सम्यग्दर्शन अनिवार्य है । सम्यग्दृष्टि जीव भी चारित्रमोहनीय कर्म के उदयवाले हों, तो वे अपने मन, वचन, काया को बाह्य भावों में जाने से रोककर, उन्हें परमात्म भाव में लीन करके गुप्ति के परिणाम वाले नहीं बना सकते । क्योंकि गुप्ति के परिणाम के लिए चारित्रमोहनीय कर्म का क्षयोपशम जरूरी होता है और यह विरतिवाले जीवों में ही आ सकता है। इसीलिए मन-वचन-काया को स्थिर करके परमात्मा के गुणों के साथ तादात्म्य पैदा करने का सत्त्व विरतिवान् जीवों में ही होता है । अतः निश्चयनय से (सूक्ष्म प्रकार से 3. अपुर्नबंधक - जो आत्मा मिथ्यात्व मौहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति (और रस) पुनः बाँधनेवाला नहीं है, वह अपुर्नबंधक कहलाता है। 4. निश्चयनयः परमार्थ को-वस्तु के यथार्थ स्वरूप में देखने वाला नय ही निश्चयनय है । जैसे साधु के वेश में रहे हुए साधु मैं साधुता हो, तो ही वह साधु है, ऐसा निश्चयनय कहता है । 5. मिथ्यादष्टिः जो वस्तु जैसी है, वैसी जो देख नहीं सकता, हैय-उपादेयादि का विवेक नहीं कर सकता, उसे मिथ्यादृष्टि कहते हैं । भौतिक सुख सामग्री सदैव नहीं रहती और सुख भी नहीं दे सकती है । इसके बावजूद मिथ्यादृष्टि जीव उसे शाश्वत सुख देने वाली मानते हैं और सदा के लिए सुख देने वाले क्षमादि गुण और उसे प्राप्त करवाने वाले देव-गुरु-धर्म के प्रति उपेक्षा करते हैं, यही उनका मिथ्यात्व है ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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