SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६३ संसारदावानल स्तुति वक्रता है । आत्मा अपने क्षमादि गुणों से ही सुखी हो सकता है, तो भी अंदर में रही माया क्षमादि गुणों की उपेक्षा करवाकर आत्मा को काषायिक भावों की तरफ ले जाती है । गुरु भगवंतों के वचनों का श्रवण कर यह जीव कभी धर्मकार्य का प्रारंभ भी करता है; पर तब भी माया, दोष निवारण और गुणप्राप्ति रूप धर्म के फल को पाने नहीं देती, बल्कि मान आदि दोषों का पोषण करवाती है। जैसे पृथ्वी का विदारण तीक्ष्ण हल के बिना सम्भव नहीं है, वैसे अनादिकाल से आत्मा में रही हुई माया का विदारण भगवान द्वारा बताए गए सत्क्रिया रूपी मार्ग के बिना सम्भव नहीं है । शास्त्रज्ञान को प्राप्त करके, साधक जब क्रिया के मार्ग पर जुड़ता है, तब प्रारंभ में यह क्रिया उसे कष्टकारी लगती है। समय और शक्ति का निरर्थक व्यय रूप लगती हैं, परन्तु ज्ञान और श्रद्धापूर्वक बार बार ये क्रियाएँ करने से कुछ शुभ भाव प्रकट होते हैं। शुभ भाव में स्थिरता आने पर पौद्गलिक आनंद तुच्छ और विडंबना स्वरूप लगता है, जिसके परिणाम स्वरूप अशुभ भाव नष्ट होते जाते हैं और मन के विकल्प घटते जाते हैं । समता आदि अनेक गुणों का साक्षात् अनुभव होता है । आत्मा अपने वास्तविक आनंद का अनुभव कर सकती है । इससे माया दूर होती है, कर्मों के बंधन नष्ट होते हैं और आत्मा परमसुख के सागर में डूबती है । इस प्रकार प्रभु के बताए हुए शुभ अनुष्ठान मायारूपी पृथ्वी को जोतने के लिए हल समान हैं । जिज्ञासा : यहाँ संसार को दावानल कहा गया है, मोह को धूल कहा और माया को पृथ्वी की उपमा दी गई। ये तीनों भाव अलग हैं कि संसार रूप ही हैं ? तृप्ति : वास्तव में मोह या माया, संसार से कोई अन्य भाव नहीं है। संसार स्वरूप ही है । इसके बावजूद अनंत दोषयुक्त संसार के भिन्न-भिन्न स्वरूप याद करने के लिए संसार से मोह और माया को अलग बताया गया
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy