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________________ २६४ सूत्र संवेदना - २ है और वीर भगवान का ध्यान, उनके वचनानुसारी जीवन या सत्क्रिया ये तीनों, उपरोक्त तीनों भावों को निर्मूल कर सकते हैं । ये तीनों भगवान संबंधी होने से भगवान को उनके नाश करनेवाले पानी, पवन और हल की उपमा दी है। नमामि वीरं गिरि-सार-धीरं - (पर्वतों में) श्रेष्ठ ऐसे मेरु पर्वत जैसे धीर, वीर भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।। जैसे प्रचंड पवन से मेरु नहीं हिलता, वैसे अनेक प्रकार के उपसर्ग और परिषहों की लगातार झड़ियाँ बरसने पर भी महावीर्ययुक्त प्रभु अपने साधना मार्ग से लेश मात्र भी चलायमान नहीं होते । हर स्थिति में जो समता भाव में लीन रहते हैं, उन वीर प्रभु को मैं नमस्कार करता हूँ। ___इन चार विशेषणों के स्मरणपूर्वक भगवान को नमस्कार करने से उनउन गुणों से युक्त भगवान के प्रति अत्यंत बहुमानभाव होता है और उनउन गुणों का बहुमान ही अज्ञानता आदि दोषों का नाश करवाकर गुणप्राप्ति का कारण बनता है ।। यह गाथा बोलते हुए सोचना चाहिए, “हे नाथ ! इस संसार रूपी दावानल में जलते हुए मुझे शीतल करने के लिए आपकी वाणी रूप पानी के बिना कोई शरण नहीं है । मोह की धूल से मलिन बनी हुई मेरी आत्मा को आपके स्वरूप का चिंतन, मनन और ध्यान ही स्वच्छ बना सकता है और मेरे में रही माया और वक्रता के भावों को आपके बताए हुए शुभ अनुष्ठान के सिवाय कोई नहीं निकाल सकता। इसीलिए मेरु जैसे धीर हे प्रभु ! हृदय के भावपूर्वक आपको नमस्कार करके प्रार्थना करता हूँ कि मेरे मन-वचन-काया के योगों को आपके वचनानुसार प्रबूत कर सकूँ, ऐसी शक्ति मुझे प्रदान करें ।" वीर भगवान की स्तुति करने के बाद दूसरी गाथा में चौबीस भगवान की स्तुति करते हुए कहते हैं ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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