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सूत्र संवेदना - २
कर्म को कमज़ोर करती है। उससे ‘पुद्गल में सुख है', वैसी मान्यता नष्ट होती है। ‘आत्मा में ही सुख है और वह सुख गुण से प्राप्त होता है, वैसा बोध होने पर जीव क्षमादि गुण के लिए अथक प्रयत्न करता है। ऐसे गहन प्रयत्न से धीरे धीरे मोहनीय कर्म का नाश होता है और क्षायिक भाव के गुण प्रकट होते हैं, जो आत्मा को अनंतकाल के लिए सुखी करते हैं । इस प्रकार, प्रचंड पवन से जैसे धूल का ढेर बिखर जाता है, वैसे ही परमात्मा के वचन से प्राप्त हुआ उनके स्वरूप का ज्ञान, उसके माध्यम से प्राप्त हुआ स्व - स्वरूप का भान और उसकी प्राप्ति से होनेवाला शुद्ध स्वरूप का - परमात्मा का ध्यान मोहरूपी धूल को दूर करता है ।'
माया-रसा-दारण-सार-सीरं2 - मायारूपी पृथ्वी को जोतने के लिए श्रेष्ठ हल समान । (वीर परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।)
माया, कपट, वंचकता, ठगना - यह सब समानार्थी शब्द हैं और माया का दूसरा अर्थ वक्रता होता है ।।
सामान्य से लोग ऐसा मानते हैं कि माया-कपट करनेवाला जीव दूसरों को ठगते हैं, परन्तु ज्ञानी पुरुष कहते हैं कि, माया करनेवाला दूसरों को ठगे या न ठगे, वह अपने आप को तो ठगता ही है । माया करके कर्म को बाँधकर वह जीव स्वयं अपनी आत्मा का अहित करता है । अपनी आत्मा को ही दुःखी करता है ।
माया का दूसरा अर्थ है वक्रता। अनादिकाल से जीव को सुख की इच्छा होने के बावजूद वह सुख प्राप्ति के सच्चे रस्ते पर नहीं चलता. यही उसकी 2. माया यह ही रसा, वहीं माया-रसा, उसका दारण वह माया-रसा-दारण । उसके लिए सार
सीरं, माया-रसा-दारण-सार-सीरं । माया अर्थात् छल, कपट, धोखा या ठगना । कितने लोग कर्म को भी अविद्या या माया के नाम से जानते हैं । वह अर्थ भी यहाँ ठीक लगता है । रसा अर्थात् पृथ्वी या धरती, । दारण-तोड़ने की क्रिया । दारण अर्थात् विदारण, तोड़ना, टुकडे करना या फाड़ देना। उसकी जो क्रिया, वह दारण । सार-उत्तम । सीरं-हल-हल का अग्रभाग, कि जिसके द्वारा पृथ्वी खोदी जाती है । जमीन के कठिन भाग उत्तम प्रकार के हल से जल्दी टूट जाते हैं । उसी तरह श्री महावीर प्रभु माया रुपी पृथ्वी के पट को शीघ्रता से तोड़नेवाले हैं।