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________________ २५६ सूत्र संवेदना - २ करने से बचाने के लिए संक्षेप में चारित्र के स्वरुप को बताने वाली समरादित्य चरित्र की ९ गाथा लिखकर भेजी । जिसे पढ़कर उनका क्रोध शांत हुआ और १४४४ बौद्ध साधुओं को मारने के संकल्प से बांधे हुए कर्मों की शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त के रूप में उन्होंने १४४४ ग्रंथ की रचना करने का निश्चय किया, ग्रंथ रचना का प्रारंभ हुआ, १४४० ग्रंथ की रचना हो भी गई । वहाँ तो उनका आयुष्य पूर्ण होने आया । अंत में इस संसारदावा की चार गाथाओं स्वरूप चार ग्रंथों की रचना का प्रारंभ किया। तीन गाथा की रचना हुई, चौथी गाथा का एक चरण लिखा और आयुष्य पूर्ण हो गया । तब संघ एकत्रित हुआ और संघ के विद्वज्जनों ने उनके अभिप्राय के अनुसार ‘भवविरह' से अंकित गाथा के अंतिम तीन चरण पूर्ण किए । तब से ये तीन चरण पक्खी, चौमासी और संवत्सरी प्रतिक्रमण में सब के साथ बोले जाते हैं । इसकी पहली गाथा में चार विशेषणों से अलंकृत वीर भगवान की स्तुति की गई है। दूसरी गाथा में कैसे विशिष्ट व्यक्ति सर्व भगवान के चरण कमलों की उपासना करते हैं और उपासना करनेवाले को कैसे फल मिलते हैं, यह बताने द्वारा सभी जिन की स्तुति की गई है। तीसरी गाथा में वीर भगवान के आगम को सागर के समान बताकर श्रुतज्ञान की स्तवना की गई है और चौथी गाथा में श्रुतदेवी की स्तुति करके उनके पास ‘भवविरह' की प्रार्थना की गई है । वहाँ भवविरह' शब्द, पू.आ.श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी महाराज की कृति का सूचक है । | आत्मशुद्धि के उपायरूप यह प्रतिक्रमण की क्रिया वर्तमान शासनाधिपति प्रभु वीर से प्राप्त हुई है। उनके प्रति कृतज्ञता भाव व्यक्त करने और इस क्रिया द्वारा स्व-आत्मा की जो शुद्धि हुई है, उसका आनंद व्यक्त करने के लिए श्राविकाएँ रोज देवसिक और राईअ प्रतिक्रमण में छः आवश्यक पूर्ण होने पर यह स्तुति बोलते हैं । श्रावक तब 'नमोऽस्तु वर्धमानाय' और विशाल-लोचन की स्तुति बोलते हैं । कभी कभी इन स्तुतियों का उपयोग
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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