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________________ २५० सूत्र संवेदना - २ है । द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को लेकर उसमें अलग-अलग विधान भी देखने मिलते हैं । इससे सिद्धांत की बातों में से कब उत्सर्ग मार्ग का और कब अपवाद मार्ग का आश्रय करना उचित है ? और इस शास्त्र का कथन किस नय से है? और किस नय से पदार्थ मेरे लिए हितकारक है, यह सब सिद्धांत के ज्ञान के बिना सामान्य जन के लिए समझना सम्भव नहीं है । अनेकान्तात्मक इस मत को पंड़ित ही जान सकते हैं और वे ही सर्वज्ञ सिद्धांत की परीक्षा करके यथार्थ स्वरूप से उसका स्वीकार कर सकते हैं। अन्य पुरुष तो इस सिद्धांत को समझ भी नही सकते, तो स्वीकारने की तो बात ही क्या ? इसलिए कहा गया है कि, भगवान का मत पंडित पुरुषों के लिए ही शरणभूत है । जिज्ञासा : जिनमत पंडित के लिए ही शरण है, मंदबुद्धिवाले के लिए नहीं ? तो मंदबुद्धिवाले को क्या करना चाहिए ? तृप्ति : जिनमत को समझने की तीक्ष्ण बुद्धि जिनकी नहीं है, वैसी आत्माओं को गीतार्थों याने विद्वानों की शरण में जाना चाहिए । वे शास्त्रानुसार जो मार्ग बताएँ, उस मार्ग पर चलना चाहिए, तो ही उनका कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं। इसीलिए भगवान ने साधना के दो ही मार्ग बताए हैं या तो स्वयं गीतार्थ बनो अर्थात् शास्त्र के ज्ञाता बनो या जब तक स्वयं गीतार्थ न बन सको, तब तक गीतार्थ गुरु भगवंत की निश्रा में रहकर साधना करो। नमामि निचं तिजगप्पहाणं - तीन जगत् में प्रधान-श्रेष्ठ (ऐसे जिनमत को) मैं नित्य नमस्कार करता हूँ । इस जगत में मत याने दर्शनशास्त्र, धर्मग्रंथ तो अनेक हैं और वे ग्रंथ जगत् में रहे पदार्थों का वर्णन भी करते हैं, परन्तु उनका यह वर्णन अपूर्ण 4. गीयत्थो य विहारो, बीओ गीयत्थनिस्सीओ भणिओ। इत्तो तइय विहारो, नाणुण्णाओ जिणवरिंदेहिं ।। - पंचाशक-१५/३१
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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