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सूत्र संवेदना - २
लाने से भगवान के प्रति आदर प्रकट होता है और वह आदर ही हमें रागादि की परवशता से मुक्त करवाने में समर्थ बनाता है ।
अब सभी जिनेश्वरों के आगे साधना के अंतिम फलस्वरूप मोक्ष की माँग करते हुए साधक कहता है कि -
सिवं दितु सुइक्कसारं - (ऐसे जिनेश्वर मुझे) श्रुत के सारभूत, ऐसा मोक्ष दें !)
“अपार संसार के पार को प्राप्त हुए जिनेश्वरों ! आप मुझे शास्त्र के सारभूत, कर्णप्रिय और अति पवित्र मोक्ष दें ।”
सुइक्कसारं = श्रुत्येकसारम् अर्थात् श्रुति के एक सारभूत । श्रुति अर्थात् शास्त्र। शास्त्र का प्रत्येक शब्द पाप से मलिन आत्मा को निर्मल बनाने के लिए समर्थ हैं । आत्मा की निर्मलता संयम से प्राप्त होती है और सर्वश्रेष्ठसंयम याने सर्वसंवरभाव का संयम मोक्ष में है, इसलिए मोक्ष का सुख ही श्रुत का एक सार है । लोक में भी कहा जाता है कि, “सा विद्या या विमुक्तये" विद्या वही है, जो मुक्ति प्राप्त करवाएँ। ऐसे शिवसुख को यहाँ श्रुति के एक सार रूप अर्थात् अद्वितीय सार रूप कहा गया है । _ श्रुति का अर्थ कान भी होता है और कान से सुनने योग्य बहुत सारी वस्तुओं में भी श्रेष्ठ-सारभूत; एक मात्र मोक्ष है, क्योंकि मोक्ष के सुख का वर्णन कान को अत्यंत प्रिय लगता है।
और शुच्येकसारम् ऐसी संस्कृत छाया करें, तो उसका अर्थ 'पवित्रता के एक श्रेष्ठ साररूप' होता है । 'शुचि' अर्थात् शुद्धि अथवा पवित्रता। वह दो प्रकार की है - द्रव्यशुचि और भावशुचि । उसमें स्नानादि से जो शरीर की 2. “सुइक्कसारं" की संस्कृत छाया दो प्रकार से हो सकती है । श्रुत्येकसारम् अथवा तो शुच्चेकसाम्'श्रु
श्रवणे' श्रुधातु श्रवणी अर्थ में प्रयोग किया जाता है। 3. श्रूयते इति श्रुतिः जो सुनाई देता है, जो सुनने के योग्य है, वह श्रुति है ।
श्रुति-वेद, श्रुति-कान और श्रुति-शास्त्र ।