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________________ कल्लाण-कंदं सूत्र २४५ व्यवहार में भी ऐसे गुणों को गुण ही कहा जाता है; परन्तु अच्छी तरह संसार को चलाने के लिए, भौतिक सुख पाने के लिए, तनाव मुक्त होने इत्यादि के लिए प्राप्त किए हुए गुण, परंपरा से तो दोषों की वृद्धि करवाकर संसार के परिभ्रमण को बढ़ानेवाले ही होते हैं, इसलिए वे गुण सुगुण नहीं कहलाते । भवनिर्वेद की प्राप्ति होने के बाद आत्मिक आनंद के कारण रूप बने वैसे क्षमा, नम्रता आदि गुण ही सुगुम कहलाते हैं। ऐसे सुगुण ही भव की परंपरा को तोड़कर मोक्ष के अनंत आनंद को प्राप्त करवा सकते हैं। भगवान ऐसे सद्गुणों के स्थानभूत होने से 'गुण' शब्द का प्रयोग न करके सुगुण' शब्द का प्रयोग किया गया है । अधिकृत जिन की स्तवना करके अब चौबीस जिन की स्तवना करते हुए कहते हैं - अपार-संसार-समुद्द-पारं पत्ता - अपार संसार समुद्र को पार किए हुए । (सभी जिनेन्द्र मुझे मोक्ष सुख दें।) __ स्तुतिकार ने संसार की सागर के साथ तुलना की है । जैसे समुद्र में पानी का पार नहीं है, वैसे विषय कषाय के वश हुए जीवों के लिए इस संसार में जन्म-मरण की कोई सीमा नहीं है । फिर भी अरिहंत परमात्मा इस संसार के स्वरूप को जानकर विषयों से विरक्त बनते हैं, कषाय से मुक्त बनते हैं तथा अपार ऐसे इस संसार के पार को भी प्राप्त करते हैं याने कि, साधना द्वारा कर्म के बंधनों को तोड़कर, जन्म-मरण की जंजीर को नाश करके परम सुखमय ऐसे मोक्षसुख को प्राप्त करते हैं और अनेक आत्माओं को मोक्ष में जाने की सच्ची राह भी बताते हैं । रागादि के वश में पड़े हुए हम इस संसार में अनंतकाल से घूम रहे हैं । जब कि महासात्त्विक तीर्थंकर परमात्मा की आत्माएँ रागादि के बंधनो को तोड़कर संसार को पार कर गई हैं । इस स्वरूप से परमात्मा को स्मृति में
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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