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________________ २४४ सूत्र संवेदना - २ जो कार्य करना योग्य हो, तब वे सभी कार्य प्रभु कषायरूप विकार के बिना करते हैं । परमात्मा संसार में थे, तब तक तो वे ऐसे श्रेष्ठ गुणों के स्वामी थे ही, परन्तु जब उनके भोगावली कर्म पूरे हो गए और महासत्त्व से उन्होंने संयम जीवन का स्वीकार किया, तब भी लोकोत्तर श्रेष्ठ प्रकार के क्षमादि दस गुणों को और वैसे ही दूसरे अनेक उत्तम गुणों को वे धारण करते थे। अंत में साधना करके वे घातीकर्मों का नाश करके केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद तो तीर्थंकर के रूप में उन्होंने जगत के ऊपर अपूर्व उपकार किया है । इसलिए स्पष्ट है कि वर्धमानस्वामी में अनेक प्रकार के सद्गुण एक साथ रहते थे । यह गाथा बोलते हुए साधक ऋषभदेव आदि पाँचों तीर्थंकरों को स्मृतिपट पर स्थापित करके, उनके गुणों के प्रति आदर और बहुमानभाव धारण करके दोनों हाथ जोड़कर मस्तक झुकाकर वंदन करते हुए प्रभु को प्रार्थना करता है, "हे प्रभु ! आपकी भक्ति का फल मुझे अन्य कुछ नहीं चाहिए, मात्र आप में रहे हुए गुण मुझमें भी प्रकट हों, यही मेरी प्रार्थना जिज्ञासा : सभी गुण अच्छे होने के बावजूद यहाँ मात्र 'गुण' शब्द प्रयोग न करके क्यों 'सुगुण' शब्द का प्रयोग किया गया है ? तृप्ति : इस संसार में गुण के रूप में जिनका उल्लेख हो सके, वैसे गुण तो बहुत हैं, परन्तु उन सभी गुणों को सुगुण नहीं कहते, परन्तु आत्मा के लिए उपकारक हों और परंपरा से मोक्ष का कारण बन सकें, ऐसे गुण ही सुगुण कहलाते हैं । संसार को अच्छी तरह से चलाने के लिए भी उदारता, प्रामाणिकता, गंभीरता, सहिष्णुता, नम्रता आदि अनेक गुणों की ज़रूरत पड़ती है।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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