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कल्लाण-कंदं सूत्र शुद्धि की जाती है, उसे द्रव्यशुचि कहा जाता है और आत्मा में से जो विषय-कषाय के भावमल को दूर किया जाता है, उसे भावशुचि कहा जाता है। सर्व कर्ममल से रहित मोक्ष, श्रेष्ठ प्रकार की भावशुचि स्वरूप है। इस पद द्वारा साधक सभी जिनेश्वरों से प्रार्थना करता है कि ऐसा मोक्ष मुझे प्रदान करें ।
सब्वे जिणिंदा सुरविंदवंदा, कल्लाण बल्लीण विसालकंदा - देवताओं के समूह भी जिन्हें वंदन करते हैं और जो कल्याणकारी वेल के विशाल कंद के समान हैं, वे सभी जिनेश्वर (मुझे मोक्ष सुख दें ।)
विशिष्ट बुद्धि और शक्ति से युक्त होने से देवों को 'विबुध' कहा जाता है। सम्यग् प्रकार की बुद्धि को धारण करनेवाले देव अपनी बुद्धि से परमात्मा में रहें लोकोत्तम गुणों को जानते हैं, इसलिए उनको परमात्मा के प्रति अत्यंत अहोभाव होता है । हृदय उनके गुणों के प्रति बहुमान भाव से झुक जाता है। इससे वे वंदन, पूजन, सत्कार, सन्मान, गीत, नृत्य, वाजिंत्र वगैरह अनेक प्रकार से परमात्मा की भक्ति करते हैं । यह पद बोलते हुए इस तरह देवों से वंदित परमात्मा को उपस्थित करने से हममें भी भगवान के प्रति अपूर्व भक्ति और बहुमान का भाव उत्पन्न होता है ।
सर्व अरिहंत भगवंत कल्याणकारी = सुखकारी वेलडी के विशाल मूल के समान है । मूल जितने विशाल और मजबूत होते हैं, वृक्ष उतने अधिक समय तक टिकते हैं। जो लोग अरिहंत भगवंत की निराशंस भाव से भक्ति करते हैं, उनके वचनों का यथार्थ पालन करते हैं, वे पुण्यानुबन्धि पुण्य का अर्जन करते हैं। यह पुण्य उत्तरोत्तर भौतिक सुख की प्राप्ति के साथ आत्मिक शुद्धि करवाकर साधक को परमपद तक पहुँचाता है । इस तरह परमपद तक पहुँचाने में परमात्मा श्रेष्ठ कारण होने से प्रभु कल्याण रूपी वृक्ष के मूल कहलाते हैं ।
यह गाथा बोलते हुए साधक सोचता है,