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अरिहंत चेइयाणं सूत्र
जाऊँ ? मुझ में भी परमात्मा के जैसी वीतरागता प्रम्रट हो' इस प्रकार परमार्थ का चिंतन करना, अनुप्रेक्षा है ।
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चैत्यवंदन संबंधी अनुप्रेक्षा से विशेष प्रकार के निर्लेप भाववाले चित्त का संप्रत्यय होता है अर्थात् ऐसे चित्त की प्रतीति होती है । इस अनुभूति से ऐसा निर्लेपभाव प्रकट होता है कि जिसके द्वारा साधक क्षपकश्रेणी पर भी आरूढ हो सकता है । इसलिए ही कहा है कि अनुप्रेक्षा के बल से जीव को भविष्य में केवलज्ञान की प्राप्ति सुलभता से होती है ।
किसी भी पदार्थ की अनुप्रेक्षा के लिए सबसे पहले उस पदार्थ का परिचय पाना चाहिए । उसके लिए योग्य गुरु के पास विनयपूर्वक उसकी वांचना लेनी चाहिए । उसमें हुए संदेह के निवारण के लिए पृच्छना करनी चाहिए । फिर उस पदार्थ को स्थिर करने के लिए पुनः पुनः उसका पुनरावर्तन करना चाहिए । पुनरावर्तन से परिचित हुए पदार्थ की गहराई तक पहुँचने के लिए, उसके रहस्यों को आत्मसात् करने के लिए, चिंतनीय पदार्थ में लीन बनने के लिए, पुनरावर्तन के बाद अनुप्रेक्षा की जाती है।
परिचित पदार्थ की पुनः पुनः अनुप्रेक्षा करने से वह पदार्थ ज्यादा अभ्यस्त होता है । तब उसी पदार्थ पर चिंतन करने से नए-नए अनेक अर्थ निकलते हैं । चित्त सहजता से उसमें लीन बनता है । अन्य विकल्प शांत होते हैं । इससे आत्मा शुभध्यान में लीन बनती है । शुभध्यान द्वारा दोषों का उन्मूलन और गुणों का प्रकटीकरण होता है । उससे साधक केवलज्ञान के अत्यंत निकट जा सकता है। इस तरह केवलज्ञान को नज़दीक लाने का उपाय ही अनुप्रेक्षा है।
इसीलिए शास्त्रकारों ने इस अनुप्रेक्षा को रत्नशोधक अग्नि जैसा कहा है। जैसे बहुत समय से खान में पड़ा मलिन रत्न अग्नि में डालने से शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार अनुप्रेक्षा रूप अग्नि प्रज्वलित होने पर कर्म कचरें से मलिन हुई, रागादि दोषों से दूषित हुई आत्मा भी शुद्ध - शुद्धतर होकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर सकती है ।