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सूत्र संवेदना - २ अनुप्रेक्षा अमृत है । अनुप्रेक्षा के फायदे तो अनुप्रेक्षा करनेवाली आत्माएँ ही समझ सकती हैं; परन्तु शास्त्र कहते हैं कि, अगर वास्तविक तरीके से एक पद की भी अनुप्रेक्षा की जाए तो उसके द्वारा कषायों को निकालकर, विषयों की वासना को विदा करके आत्मज्ञान द्वारा साधक अनुभवज्ञान तक पहुँच सकता है । यह पद बोलते हुए साधक सोचता है - “संसार का निस्तार करके अगर मुझे मोक्ष में जाना हो, तो इस अनुप्रेक्षा के बिना नहीं चलेगा । अतः चैत्यवंदन के एक-एक पद का अध्ययन करके, उसकी गहरी अनुप्रेक्षा करके एक-एक पद इस तरह बोलूँ कि जिसके कारण अरिहंतादि में लीन बनकर
आत्मा का आनंद अभी ही पा सकूँ ।” वड्डमाणीए - बढती हुई (श्रद्धादि द्वारा मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।)
कायोत्सर्ग के साधनभूत श्रद्धा आदि जो भाव हैं वे अवस्थित न रहकर बढते रहने चाहिए। एक बार श्रद्धा, मेधा आदि का जो भाव पैदा हुए हो, वह उतने के उतने नहीं रहना चाहिए परन्तु दिन-प्रतिदिन उसमें विकास और वृद्धि होनी चाहिए ।
सतत बढ़ते हुए श्रद्धा-मेधादि के परिणाम ही ऐसे हैं कि, तत्पूर्वक चैत्यवंदनादि की क्रिया करने से आत्मा एक अपूर्व आनंद को प्राप्त कर सकती है । इसीसे साधक उस मार्ग पर आगे बढ़ते-बढ़ते अंत में अपूर्वकरण की महासमाधि को प्राप्त करके, उसके द्वारा क्षपकश्रेणी पाकर घनघाति कर्मों के समूह का नाश करके, केवलज्ञान की महान लक्ष्मी को प्राप्त कर सकता है । इसीसे इन श्रद्धादि परिणामों को अपूर्वकरण रूप महासमाधि का बीज़ (कारण) कहा गया है ।
जिज्ञासा : कायोत्सर्ग करते समय यह कायोत्सर्ग में श्रद्धादि से करता हूँ, वैसा बोलने की क्या जरूरत है ?
तृप्ति : इस प्रकार बोलने से मन में एक प्रणिधान होता है कि मुझे यह कायोत्सर्ग ऐसे-वैसे नहीं करना है, बल्कि श्रद्धादि के परिणामपूर्वक ही