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सूत्र संवेदना - २
श्रद्धा, मेधादि द्वारा सूत्रों के जिन भावों का अनुभव किया हो उनके गहरे रहस्यों को प्राप्त करने के लिए, प्राप्त हुए उन भावों को और दृढ़ करने के लिए तथा उत्तरोत्तर उन भावों को तीव्र करके मोक्षमार्ग तक पहुँचने के लिए अनुप्रेक्षा की अत्यंत जरूरत है । इसलिए अब कायोत्सर्ग के पाँचवें साधन अनुप्रेक्षा' को बताते हैं -
(वड्डमाणिए) अणुप्पेहाए - अनुप्रेक्षा से (बढ़ती हुई अनुप्रेक्षा से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।) ___ अनु अर्थात् पीछे और प्रेक्षा अर्थात् प्रकृष्टरूप से देखना । वांचना, पृच्छना, परावर्तन के द्वारा एक बार जिस सूत्र का ज्ञान मिला हो उसका, या अन्य आत्महितकर पदार्थों का ही बार-बार विचार करना, उन्हें सूक्ष्मता से समझना, उनके ऊपर गहरा चिंतन करना, सूक्ष्मातिसूक्ष्म चिंतन द्वारा उन भावों में लीन होने का प्रयत्न करना, अनुप्रेक्षा है ।
'भगवान के गुणों से आत्मा को वासित करने के लिए की जानेवाली चैत्यवंदन की क्रिया मैं कैसे करूँ कि जिससे वीतराग के साथ मैं एक बन 11. चैत्यवंदन करने के लिए किस प्रकार की अनुप्रेक्षा चाहिए । वह बताते हुए ललित विस्तरा में
अनुप्रेक्षा के निम्नलिखित लक्षण बताए हैं - १. अनुभूत पदार्थों का अभ्यास विशेष : वांचना, पृच्छना, परावर्तना द्वारा किसी भी पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करके जब उसके ऊपर अनुप्रेक्षा की जाती है, तब वे पदार्थ अत्यंत अभ्यस्त हो जाते हैं। २. परम संवेग का प्रकटीकरण : चैत्यवंदन सूत्र के एक-एक पद परमात्मा के लोकोत्तम स्वरूप को बतानेवाले हैं, उसको अनुप्रेक्षा परमात्मा के भाव को प्राप्त करने की इच्छारूप संवेग को प्रगट करती है। ३. दृढ़ संवेगभाव : तथा अनुप्रेक्षा करने से यह संवेग का परिणाम दृढ़-दृढ़तर होता जाता है। ४. उत्तरोत्तर विशेष संप्रत्याकार हृदयास्था : जैसे-जैसे तत्त्वभूत पदार्थ की अनुप्रेक्षा बढ़ती है, वैसे-वैसे 'ये तत्त्व ऐसे ही हैं ऐसी हमें प्रतीति होती है। अब 'ज्ञानी कहते हैं, इसलिए नहीं परन्तु खुद को भी वह वस्तु वैसी ही संवेदित होती है । ५. केवलज्ञान समुख चित्तधर्म का प्रकट होना : सर्वज्ञ कथित शास्त्र के सभी शब्द दोष के निरोध में और गुणों को प्रकट करने में यत्न करवाते हैं । उन-उन शब्दों की अनुप्रेक्षा दोषों का नाश करवाकर गुणों की संवेदनाएँ करवाती हैं, जो उत्तरोत्तर वृद्धि पाती हुई मोक्ष में विश्रांत होती है।