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________________ २३० सूत्र संवेदना - २ अब तक कमी है । मेरे कर्म वास्तव में भारी हैं । इसीलिए मैं इन भावों को प्राप्त नहीं कर सका, परन्तु और प्रयत्न करूँगा, तो जरूर ये भाव मुझे प्राप्त होंगे ।” विवेकपूर्वक किए हुए इन विचारों के कारण दीनता तो नहीं आती, परन्तु थोड़े प्रयत्न से ज्यादा फल प्राप्त करने की इच्छा रूप उत्सुकता भी नहीं आती। दीनता या उत्सुकता निर्विचारक को ही होती है । प्रयत्न कम करना और समय से पहले फल की इच्छा रखना, यह निर्विचारकता का ही प्रदर्शन है । और यह धृति° धीर-गंभीर आशय स्वरूप है । धृति, धीर-गंभीर आशयरूप होने के कारण ही धृतिमान व्यक्ति ही पदार्थ की गहराई तक जा सकता है और देखे गए भावों को प्राप्त करने के लिए अधिक प्रयत्न भी कर सकता है । इसीलिए शास्त्रकारों ने इस धृति को अवश्य कल्याण करनेवाले चिंतामणि रत्न की प्राप्ति तुल्य कहा है । जैसे चिंतामणि रत्न मिलते ही संसारी जीवों को विश्वास हो जाता है कि, अब मेरी दरिद्रता नाश हो जाएँगी एवं मैं श्रीमंत बन जाऊँगा। यद्यपि चिंतामणि मिलने मात्र से दरिद्रता का नाश नहीं होता । विधिवत् उसका सेवन या उसकी उपासना करने के बाद भी पुण्यवान को ही इष्ट्र फल देता है । तो भी चिंतामणि मिलते ही जैसे विश्वास होता है कि 'अब मेरी दरिद्रता गई, वैसे धृतिपूर्वक चैत्यवंदन करनेवाले को भी विश्वास होता है कि दरिद्र अवस्था तुल्य यह मेरा संसार अब अधिक समय नहीं रहेगा ।' इसलिए अब उसे सांसारिक दुःखों की चिंता नहीं रहती, अब तो उसे विश्वास हो जाता है कि, मैं चैत्यवंदन करने से अवश्य सुखी बनूँगा । 9. चैत्यवंदन करने के लिए कैसा धीरज चाहिए यह जानने के लिए ललितविस्तरा में 'धृति' के लक्षण बताए हैं - ' १. दीनता-उत्सुकता का अभाव, २. धीर-गंभीर आशयरुपता ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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