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अरिहंत चेइयाणं सूत्र
२२९ धृति अर्थात् मन का प्रणिधान या अंतरंग प्रीति ।। मेधा से कायोत्सर्ग करने से आत्मा के उपकारक बहुत भाव दिखाई देते हैं । इसीलिए ये भाव मुझे प्राप्त करने योग्य हैं, ऐसी अंतरंग प्रीति प्रकट होती है। मन के प्रणिधानपूर्वक की यह अंतरंग प्रीति ही धृति है । जहाँ सच्ची प्रीति होती है, वहाँ धृति अवश्य होती है ।
भोग में जिनको प्रीति होती है, वैसे लोग भौतिक सुख के लिए धीरजपूर्वक निरंतर प्रयत्न करते रहते हैं। ऐसा लोक में दिखाई देता है । यद्यपि भौतिक क्षेत्र में प्रीति, मोहनीयकर्म के उदय से होती है। जिसके कारण वहाँ प्रीति के साथ रागादि जन्य व्याकुलता-विह्वलता आदि भाव भी रहते हैं; परन्तु श्रद्धा और मेधापूर्वक प्रगट हुई चैत्यवंदन के प्रति प्रीति और उससे प्रकट हुई धृति चारित्रमोहनीय कर्म के क्षयोपशम से प्राप्त होती है। इससे चैत्यवंदन करनेवाले साधक को चैत्यवंदन काल में रागादिकृत् व्यग्रता या विह्वलतादि भाव नहीं सताते और वे एकाग्रतापूर्वक निश्चिंतता से दृढ़ प्रयत्न कर सकते हैं ।
रागादिकृत् विह्वलता का अभाव होने के कारण धृति प्राप्त साधक में दीनता या उत्सुकता नहीं होती । धृति प्राप्त होने से पहले जब साधक को मेधा से चैत्यवंदन की क्रिया के भावों का बोध होता है, तब वह उन भावों को महसूस करना चाहता है । उसके लिए वह प्रयत्न भी करता है, पर कईबार रागादि की आकुलता के कारण वह उन भावों को उत्पन्न नहीं कर पाता । ऐसा होने पर धृति रहित साधक विवेकपूर्ण विचार के अभाव में दीन बन जाता है। उसके मन पर हताशा छा जाती है । 'कब इन भावों' को स्पर्श करके मैं आत्मा का आनंद पाऊँ," ऐसी उत्सुकता भी हो जाती है । परन्तु धृतिमान आत्मा को 'मेरा क्या होगा ?' ऐसे विशिष्ट भाव को 'मैं कब पा सकूँगा ?' ऐसी दीनता नहीं आती । वह तो सतत मनोरथ की वृद्धि करता है -
"कभी न कभी इस क्रिया से ही मैं इस भाव तक पहुँचकर - आत्मा का आनंद प्राप्त कर सकूँगा । अतः और ज्यादा प्रयत्न करूँ । मेरे प्रयत्न में