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________________ अरिहंत चेइयाणं सूत्र २२७ समझने पर रोगी को दवा की तीव्र आवश्यकती लगती है, वैसे ज्ञानावरणीय और दर्शन मोहनीयकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त हुई निर्मल बुद्धि के कारण साधक को आत्मा का हित करनेवाले सच्चे सुख का मार्ग बतानेवाले भगवान के वचन रूप शास्त्र को समझने की लालसा होती है । यह लालसा भी मात्र शब्द में सीमित न होकर, शास्त्र के एक-एक शब्द के सूक्ष्म भाव तथा शब्द के पीछे छिपे गहरे तत्त्वों के संशोधन के लिए प्रयत्न करवाती है। निर्मल बुद्धि से प्रकट हुई आंतरिकसूझ के कारण ही साधक शास्त्रज्ञ सद्गुरु को ढूंढते हैं । सम्यग् प्रकार से उनकी उपासना करते हैं। उनकी कृपा का पात्र बनकर विधिवत् शास्त्र का अध्ययन कर शास्त्रों में रहे सूक्ष्म भावों को स्पर्श करने का प्रयत्न करते हैं । इस प्रकार मेधा के परिणाम पूर्वक चैत्यवंदनादि सूत्रों का अध्ययन करके चैत्यवंदन करनेवाला साधक सूत्र के एक-एक पद द्वारा आत्मा को उपकारक, आत्मा को आनंददायक बहुत भावों का दर्शन कर सकता है । इसलिए वह सूत्रार्थ के विषय में दिन-प्रतिदिन विशेष प्रकार से मेधा को सक्रिय करता है । जिससे उसकी बुद्धि विशेष सूक्ष्म बनती है । इस तरह 8. चैत्यवंदन करने के लिए कैसी बुद्धि चाहिए । वह बताते हुए ‘ललितविस्तरा' में 'मेधा' के निम्नलिखित लक्षण बताए गए हैं - १. सत्शास्त्र में प्रवृत्ति : “इस जगत में जानने योग्य कुछ भी है, तो आत्महितकर शास्त्र ही है। इसलिए मिली हुई बुद्धि और शक्ति का पूर्ण उपयोग कर मुझे इन शास्त्रों को समझने का प्रयत्न करना चाहिए ।" ऐसा ज्ञान निर्मल बुद्धि से होता है । २. असत्शास्त्र में अवज्ञा : ऐसी बुद्धि के कारण ही रागादि दोषों की वृद्धि करवानेवाले, कुशास्त्र के प्रति अत्यंत नापसंदी और अरुचि होती है । ३. गुरु विनय से प्राप्त : गुरु भगवंतों से विनयपूर्वक शास्त्र ज्ञान पाने की इच्छा होती है। निर्मल बुद्धि से समझ में आता है कि शास्त्र ज्ञान सद्गुरु के प्रति बहुमान भाव से ही प्राप्त होता है। सद्गुरु के बहुमान के बिना शास्त्र पढ़ें, तो शायद शास्त्र के शब्दों का ज्ञान हो सकता है, परन्तु शास्त्रों के अपूर्व भाव नहीं जान सकते, इसलिए मेधावी पुरुष विनय-बहुमानपूर्वक शास्त्राभ्यास करते हैं। ४. शास्त्र के प्रति महान उपादेय भाव : द्रव्य रोग से पीडीत रोगी को जैसे दवा अत्यंत उपादेय लगती है, वैसे ही निर्मल बुद्धि के कारण भावरोग के नाश के उपाय रूप शास्त्र (चैत्यवंदन सूत्र) अत्यंत उपादेय लगते हैं अर्थात् आदर करने योग्य लगते हैं, ग्रहण करने योग्य लगते हैं।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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