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________________ २२६ सूत्र संवेदना - २ सामान्य से चैत्यवंदन करने की इच्छा तो बहुत बार बहुत जीवों को होती है परन्तु सूक्ष्म दृष्टि से ख्याल आता है कि इस इच्छा के पीछे ज्यादातर तो मोहजन्य सुख की अभिलाषा अथवा ओघसंज्ञा या लोकसंज्ञा ही कारण होती है ऐसी इच्छा से किया हुआ कायोत्सर्ग श्रद्धा के परिणाम से रहित होने से श्रेष्ठ कोटि के बोधि आदि फल को नहीं दे सकता । यह पद बोलते हुए साधक सोचता है - “क्या परमात्मा के प्रति अंतर में बहुमान प्रकट हुआ है ? यह क्रिया करके कर्म मल से मलिन आत्मा को निर्मल करने की भावना जागृत हुई है ? वीतराग के आलंबन से रागादि दोषों को दूर करने की इच्छा है ? अगर यह भाव अंतर में है तो ही वास्तविक श्रद्धा का परिणाम है और उससे ही मेरा कायोत्सर्ग सफल है । अगर अंतर में ऐसे भाव नहीं आएँगे, तो मेरा कायोत्सर्ग सफल नहीं बनेगा । इसलिए श्रद्धा के परिणाम को प्रकट करने के लिए मैं प्रयत्न करूँ ।” कायोत्सर्ग यह, मात्र श्रद्धापूर्वक सामान्य से सूत्र बोलने की क्रिया नहीं है परन्तु मन में बोले जानेवाले शब्द के मर्म को पकड़कर उसमें लीन होने की एक विशिष्ट क्रिया है, इसलिए उसमें केवल श्रद्धा नहीं, बल्कि मेधा याने बुद्धि की भी जरूरत है । इसीलिए अब कायोत्सर्ग की सफलता के दूसरे साधन 'मेधा' को बताते हैं ( वड्डमाणिए) मेहाए मेधा से ( बढ़ती हुई मेधा से मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।) ww मेधा का अर्थ है त्रास्त्र को समझने की कुशल बुद्धि । सूत्रों के तात्पर्य को समझने का तीव्र और सूक्ष्म मानसिक यत्न । कायोत्सर्ग ऐसी मेधा से करना चाहिए, जड़ता से नहीं । सम्यग् श्रद्धा से उत्पन्न हुई निर्मल बुद्धि आत्मा का अहित करे, वैसे अर्थशास्त्र और कामशास्त्र की उपेक्षा करवाकर आत्म-हितकर धर्मशास्त्र में प्रवृत्ति करवाती हैं। जैसे रोग की गंभीरता
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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