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________________ अरिहंत चेइयाणं सूत्र . २२५ बहुमान भाव के कारण शर्म या बलात्कार से नहीं, परन्तु स्वयं ही चैत्यवंदन करने की जो इच्छा प्रगट होती है, वह श्रद्धा है। यह श्रद्धा मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम या उपशम से प्रगट होती है। मोहनीय कर्म की पकड जैसे-जैसे ढीली पड़ती है, वैसे-वैसे चित्त में से रागादि की मलिनता दूर होती है, बुद्धि निर्मल बनती है और परमात्मा के गुणों का यथार्थ ज्ञान होता है। परमात्मा के प्रति ज्ञानपूर्वक के बहुमान से "ऐसे विशिष्ट गुणसंपन्न स्वामी मुझे मिले हैं" वैसा चित्त में आह्लाद होता है, मन प्रफुल्लित बनता है, शरीर रोमांचित होता है। इस प्रकार अंतरंग गुण के बहुमानपूर्वक भगवान की भक्ति करने की जो भावना है, वही श्रद्धा है ।। श्रद्धा के परिणामपूर्वक जब चैत्यवंदन की क्रिया का प्रारम्भ किया जाए, तब चैत्यवंदन के सूत्रों के प्रत्येक शब्दों के उच्चारण से हृदय अरिहंत के भाव से भावित होता है और अंत में वास्तविक चैत्यवंदन स्वरूप कायोत्सर्ग करने पर प्रभु के साथ एकरूपता होने पर चैत्यवंदन की यह क्रिया कितनी सुंदर है ! कैसी उत्तम है ! संसार की सुख भरी क्रिया में कैसे रागादि संकलेश हैं और धर्म की छोटी भी क्रिया में उपशम भाव का कैसा आनंद है, ऐसी अनुभूति होती है। इन सुखदायक संवेदनाओं के कारण श्रद्धा का परिणाम बढ़ता है और लगातार यह क्रिया करने की अभिलाषा जगती है । यही बढ़ती हुई श्रद्धा है और ऐसे श्रद्धा के परिणाम पूर्वक किया गया कायोत्सर्ग ही मोक्ष के अंतिम फल तक पहुँचा सकता है ।। ३. सत्प्रतीति : श्रद्धा नाम के गुण से एक विश्वास प्रकट होता है कि, मेरे सुख और दुःख का कारण मेरे कर्म ही हैं । कर्म और कर्म के फल का जगत् में अस्तित्व है ही । कर्म के कारण ही ये सभी बंधन हैं । कर्मनाश का उपाय परमात्मा की भक्ति है । इसीलिए परमात्मा की अनेक प्रकार से भक्ति करके मेरे कर्मों का क्षय करूँ । ऐसी भावनापूर्वक चैत्यवंदन करने की इच्छा श्रद्धा है। ४. चित्तकालुष्य का नाश : जैसे जलाशय में डाला हुआ जलकांत मणि पानी के कालुष्य को दूर कर जल को स्वच्छ करता है, वैसे ही श्रद्धारूपी रत्न भी चित्त में रहे संशयादि दोषों को दूर कर चित्त को स्वच्छ करता है । संशयादि दोष नाश होने से भगवान के बताए हुए मोक्ष मार्ग के ऊपर अत्यंत आदर होता है । हृदय इस मार्ग से भावित होता है, इसीलिए चैत्यवंदनादि शुभ क्रिया की अभिलाषा होती है।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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