SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२२ सूत्र संवेदना - २ बोधिरूप फल की प्राप्ति के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ । मुमुक्षु आत्मा का अंतिम लक्ष्य मोक्ष होता है । मुमुक्षु समझता है कि, मोक्ष मिलना आसान नहीं है। मोक्ष के लिए तो सबसे पहले अपनी आत्मा में सम्यग्दर्शन गुण प्रकट करना पड़ता है । सम्यग्दर्शन के बिना किसी जीव का कभी मोक्ष नहीं हुआ । चारित्र के बिना मोक्ष संभव है, परन्तु सम्यग्दर्शन बिना तो मोक्ष कभी संभव नहीं है। इसीलिए यह पद बोलते हुए साधक सोचता है कि, इस कार्योत्सर्ग से मुझे वंदन-पूजन-सत्कार और सम्मान का अन्य कोई फल नहीं, परन्तु बोधि की प्राप्ति रूप फल ही प्राप्त हो । जिज्ञासा : श्रावक या साधु की भूमिका में रही आत्माएँ ही प्रायः करके चैत्यवंदन करती हैं और उनको तो सम्यग्दर्शन गुण प्रगट हुआ ही होता है, तो उनको इस बोधिरूप फल के लिए कायोत्सर्ग क्यों करना चाहिए? तृप्ति : साधु भगवंत और श्रावक भी कायोत्सर्ग द्वारा बोधि रूप फल की इच्छा करते हैं; उसका कारण यह है कि, शुद्धि के भेद से सम्यग्दर्शन के असंख्य प्रकार हैं। चतुर्थ गुणस्थान से लेकर संपूर्ण शुद्ध कक्षा के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति न हो, तब तक खुद को जिस भूमिका का सम्यग्दर्शन प्राप्त हुआ हो, उससे ऊपर की भूमिका के सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिए और प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन को टिकाने के लिए यह प्रार्थना योग्य ही है । इसके अलावा व्यवहार से अपुनबंधक की कक्षा वाले साधक भी चैत्यवंदन की क्रिया करते हैं। उनको सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं हुआ होता, इसलिए वे तो यह पद बोलकर कायोत्सर्ग के फलरूप सम्यग्दर्शन की प्रार्थना अवश्य कर सकते हैं। इसके उपरांत बोधि का अर्थ जैनधर्म की प्राप्ति भी होता है। जैनधर्म सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र स्वरूप रत्नत्रयी है । इस रत्नत्रयी की 6. दंसणभट्ठो भये दंसणभट्ठस्स नत्थि निव्वाणं । सिप्रति चरणरहिया, दंसणरहिया न सिझंति।। सम्यग्दर्शन से पतित, जीव गिरा हुआ ही है क्योंकि सम्यग्दर्शन से पतित को मोक्ष नहीं मिलता। चारित्र से रहित व्यक्ति मोक्ष में जा सकता है, परन्तु सम्यग्दर्शन से रहित साधक को मोक्ष नहीं मिलता। - संबोध सित्तरी ।
SR No.006125
Book TitleSutra Samvedana Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrashamitashreeji
PublisherSanmarg Prakashan
Publication Year2012
Total Pages362
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy