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अरिहंत चेइयाणं सूत्र
२२१ “हम मगन भये प्रभु ध्यान में, ध्यान में ध्यान में ध्यान में... बिसर गई दुविधा तन-मन की, अचिरासुत गुण गाम में..." "दुःख दोहग दूरे टल्या रे... सुख संपदशं भेट
धींग धणी माथे कीनो रे... कुण गंजे नर खेट" ऐसी विशिष्ट रचनाओं द्वारा “महापुरुषों ने जैसा आत्मा का आनंद प्राप्त किया और उसके द्वारा उन्होंने जैसी कर्म की निजैरा या विशिष्ट पुण्य का बंध किया, वे सभी फल मुझे इस कायोत्सर्ग से प्राप्त हों ।” यह पद बोलते हुए साधक सोचता है,
“इस प्रतिमा की स्तवना करके कितने योग्य जीवों ने कैसी सुखद संवेदना की होगी ! कैसे अपूर्व आनंद की अनुभूति की होगी ! उसके द्वारा उन्होंने कैसे विशिष्ट गुण प्राप्त किए होंगे। हे प्रभु ! मैं उनके उन श्रेष्ठ भावों की अनुमोदना करता हूँ और इस कायोत्सर्ग द्वारा मुझे भी वैसे ही उत्तम भावों की प्राप्ति हो, वैसी
भावना से हृदय को भावित करता हूँ ।” “वंदणवत्तियाए” इत्यादि पद बोलते - वंदन, पूजन और सत्कार के काल में जो-जो विशेष भाव आने की संभावना है, उन भावों की अनुमोदना के लिए “मैं कायोत्सर्ग करता हूँ और कायोत्सर्ग द्वारा मुझे उन भावों से होनेवाले फल की प्राप्ति करनी है" - वह बात मन में दृढ़ करके, अगर उन उन पदों का उच्चारण हो, तो उस वक्त ही हृदय में विशिष्ट भावों का स्पर्श हो सकता है । इसलिए कायोत्सर्ग से मुझे यह फल प्राप्त हो ! ऐसे उद्देश्य के साथ इन पदों का उच्चारण करना चाहिए । ___ अब वंदन, पूजन, सत्कार और सम्मान आदि से कौन-सा फल चाहिए ? यह बताते हुए कहते हैं -
बोहिलाभवत्तियाए - बोधिलाभ के निमित्त से (मैं कायोत्सर्ग करता