________________
२२०
सूत्र संवेदना - २ प्रेरणा करने में और कायोत्सर्ग द्वारा अनुमोदना करने में उनको कोई बाधा नहीं है ।
मुनि उपदेश द्वारा भव्यात्मा को प्रभु भक्ति में जोड़ते हैं, तब भी उनका उपदेश आरंभ-समारंभ की अनुमति का नहीं होता, परन्तु भगवान की भक्ति के फल के वर्णन द्वारा श्रावक को भक्ति की भावना में प्रेरणा करने का ही होता है; इसलिए उपदेश देते समय वे खूब सावधानी रखते हैं कि कहीं उनकी वाणी से आरंभ-समारंभ की अनुमति न हो जाए, भगवद् भक्ति द्वारा जो फल श्रावक को अपेक्षित है, वही फल मुनि को भी अपेक्षित है, इसीलिए मुनि भगवंत श्रावक के पूजनादि की अनुमोदना कर सकते हैं।
इस प्रकार साधु का उपदेश देना भी योग्य है और पूजन आदि से होनेवाले भावों की अनुमोदना करना भी योग्य है । इसीलिए साधु भगवंत पूजन-सत्कार से होनेवाले भावों की निष्पत्ति-प्राप्ति के लिए अत्यंत उचित कायोत्सर्ग करते हैं । सम्माण-वत्तियाए - सम्मान के निमित्त से (मैं कायोत्सर्ग करता हूँ।)
अरिहंत चैत्यों के सम्मान से प्राप्त होनेवाले फल को प्राप्त करने के लिए मैं कायोत्सर्ग करता हूँ ।
पूजन और सत्कार करने के बाद भी परमात्मा की भाव-भक्ति में विशेष प्रकार से एकाग्रता लाने के लिए, अरिहंत परमात्मा के गुणों का स्मरण करवाते, उनकी श्रेष्ठता का वर्णन करते, उनकी उपकारिता को याद करवाते महापुरुषों द्वारा रचित स्तवन, स्तुति, स्तोत्र और गीतादि से परमात्मा की विशेष प्रकार से भक्ति करना, यही सम्मान है ।
महापुरुषों द्वारा रचित अर्थ गंभीर स्तोत्रादि के सहारे जब साधक, परमात्मा के साथ तादात्म्य भाव को साधने का प्रयत्न करते हैं, तब वे दिव्य सुखों का उल्लंघन करनेवाले महाआनंद को प्राप्त कर सकते हैं। उस समय की उनकी अनुभूति के शब्द ही उनके आनंद की साक्षी हैं।