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सूत्र संवेदना - २
___ चैत्यवंदन की क्रिया कोई सामान्य क्रिया नहीं है, वह मोक्ष के महान
आनंद की अनुभूति करवानेवाली क्रिया है । इस क्रिया द्वारा साधक अपनी सभी चित्तवृत्तियों को शांत करके, मन को एकाग्र करके, परमात्मा के ध्यान में लीन हो सकता है । परमात्मा के ध्यान में एकाकार कैसे बना जा सकता है, उसकी समुचित विधि इस सूत्र में बताई गई है ।
नाटक करने से पहले जैसे कोई अच्छा अभिनेता उसकी प्रेक्टिस करता है, जिससे उन भावों से वह भावित बनकर प्रेक्षक को भी भावमय बना सके। उसी प्रकार चैत्यवंदन जैसी दुष्कर क्रिया करने से पहले साधक भी चैत्यवंदन के अनुरूप अपने चित्त को तैयार करने के लिए 'नमोऽत्यु णं' आदि सूत्रों के एक-एक पदों को यथायोग्य प्रकार से बोलता है और अरिहंत के गुणों से हृदय को भावित करता है । इस प्रकार भावित होने के बाद वह खड़ा होकर, पैर को जिनमुद्रा में, हाथ को योगमुद्रा में और दृष्टि को जिनप्रतिमा के ऊपर स्थित करके, यह सूत्र बोलकर कायोत्सर्ग की प्रतिज्ञा करता है ।
कायोत्सर्ग में स्थिर रहकर परमात्मामय बनने रूप याने परमात्मा के साथ एकमेक होनेरूप चैत्यवंदन करना अति दुष्कर है। इस सूत्र में इस दुष्कर कार्य की सिद्धि के लिए अत्यंत सहायक बने, वैसे पाँच सचोट साधन बताए हैं। उसके प्रयोगपूर्वक कायोत्सर्ग किया जाए, तो एक कुशल धनुर्धर की तरह लक्ष्य को सिद्ध किया जा सकता है । वे पाँच साधन सतत बढते हुए श्रद्धा, मेधा, धृति, धारणा और अनुप्रेक्षा के परिणाम (भाव) हैं । ऐसे भावपूर्वक किया गया काउस्सग्ग, क्रमशः वीतराग भाव की प्राप्ति करवाता है।
सामान्य से देखें, तो इस सूत्र में मात्र कायोत्सर्ग की विधि बताई गई है; परन्तु उसके माध्यम से मोक्षाभिलाषी, विचारक और जिज्ञासु आत्मा को धर्म की प्रत्येक क्रिया किस प्रकार करनी चाहिए, उसका सुंदर मार्गदर्शन मिलता है ।