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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र) . २०७ करनेवाले दुःख के क्षय से मन की स्वस्थता प्राप्त होगी, जिससे साधना होगी तथा कर्म का क्षय होगा, इसलिए यह माँग योग्य ही है ।
कर्म का क्षय, समाधि और बोधि से होता है, इसलिए अब साधक उसकी प्रार्थना करता है।
समाधिमरणं च - और समाधिपूर्वक मरण । "हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से मुझे 'समाधि मरण' प्राप्त हो !"
समाधि = दुःख एवं सुख के संयोग में समान बुद्धि, चित्त की स्वस्थता। सुख के संयोग में रागकृत चित्त की विह्वलता का नहीं होना और दुःख के समय में द्वेष, अरुचि या नापसंदगी कृत चित्त की विह्वलता का नहीं होना। विशेष प्रकार के सुख-दुःख में मन को स्वस्थ रखना, समाधि में रखना मुश्किल है और उसमें भी मरण के समय जब मानसिक एवं शारीरिक वेदनाएँ असह्य होती हैं, तब उन वेदनाओं के बीच मन को समाधि में रखना तो बहुत ही कठिन होता है । अंत समय अगर मन समाधि में न रहे तो गति अच्छी नहीं होती और सद्गति के बिना धर्मसाधना सुंदर प्रकार से नहीं हो सकती। आधि, व्याधि, उपाधि से घिरे हुए इस संसार में समाधि सुदुर्लभ है । समाधि के अखंड भंडार तुल्य अरिहंत परमात्मा से उसकी प्रार्थना करने से वह अवश्य प्राप्त होती है। खुद जिनके पास समाधि न हो, ऐसे अन्य देव या मनुष्यों के पास समाधि की प्रार्थना सफल नहीं होती। इसीलिए यह पद बोलते हुए साधक कहता है -
"हे भगवान ! आपको किए गए प्रणाम से मुझे समाधि मरण की
प्राप्ति हो... जिससे मुझे पुनः पुनः संसार में भटकना न पड़े । जिज्ञासा:-यहाँ समाधिमय जीवन न माँगते हुए समाधि मरण माँगा, उसका क्या कारण है ?
तृप्तिः-प्राणीमात्र के लिए मरण का दुःख असह्य होता है । मरण के समय प्रायः वही आत्मा समाधि रख सकती है, जिसने जीवन में समाधि के