________________
२०६
सूत्र संवेदना - २
जन्म होने पर शरीर के साथ संबंध होता है, शरीर के कारण सैकड़ों ज़रूरतें खड़ी होती हैं, शरीर के कारण स्वजनों के साथ, समाज के साथ संबंध रखना पड़ता है । ये सब संबंध बनाए रखने के लिए भी अनेक प्रकार के दुःखों को सहना पड़ता है । इसलिए विवेकी आत्मा को विषयकषाय और उन्हें उत्पन्न करनेवाले संसार की सभी सामग्री दुःख रूप लगती है । पुण्य के उदय से सुंदर शरीर मिला हो, बेशुमार संपत्ति मिली हो या विवेकसंपन्न स्त्री, पुत्रादि परिवार मिले हों, तो भी वह संयोग अंत में दुःखरूप ही होने से, विवेकी साधक भगवान से प्रार्थना करता है, 'हे नाथ ! दुःख को उत्पन्न करनेवाले ये सभी वैषयिक-काषायिक भाव नष्ट हो जाएँ।'
दुःख का क्षय कर्म के क्षय के बिना संभव नहीं है। इसलिए अब ग्यारहवीं प्रार्थना स्वरूप साधक कहता है कि -
कम्मक्खओ - कर्म का क्षय - "हे नाथ ! आपको प्रणाम करने से मेरे कर्म का नाश हो !" साधक अच्छी तरह समझता है कि जब तक ये कर्म हैं, तब तक दुःख तो आनेवाले ही हैं, अतः दुःख के नाश के लिए कर्म का नाश अत्यंत जरूरी है, इसलिए भगवान से प्रार्थना करता है कि - “हे नाथ ! आपको किए गए प्रणाम से दुःख के कारणभूत मेरे कर्मों का नाश हो !"
जिज्ञासा:- कर्म के क्षय से दुःख का क्षय तो होनेवाला ही था, तो फिर दुःखक्षय की प्रार्थना अलग से क्यों की गई है ?
तृप्ति : कर्म के क्षय से दुःख का नाश होनेवाला है, यह सही है, परन्तु कर्म का क्षय साधना किए बिना नहीं हो सकता और साधना मन की स्वस्थता के बिना नहीं होती । अल्पसत्त्व वाले साधक प्रत्येक संयोग में मन की स्वस्थता नहीं टिका सकते, अतः यहाँ दुःख के क्षय से साधना में विघ्न करनेवाले दुःख के नाश की याचना की गई है, सभी दुःख की नहीं । विघ्न