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जयवीयराय सूत्र (प्रार्थना सूत्र )
३. लोकमान्य का अपमान : लोकपूज्य राजा, मंत्री, सेठ, उनके गुरु वगैरह का तिरस्कार करना - मज़ाक वगैरह करना; लोकविरुद्ध कार्य है।
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४. बहुजनविरुद्ध संग : जिसने अपनी निंदनीय प्रवृत्ति द्वारा बहुत लोगों को विरुद्ध बनाया हो, वैसे लोगों की संगति करने से धर्म की लघुता होती है और खुद भी कई बार मुसीबत में आ जाते हैं । इससे ऐसे लोगों के संगस्वरूप लोकविरुद्ध का धर्मात्मा को त्याग करना चाहिए ।
५. देशाचारलंघन : धर्मात्मा जिस देश में रहता हो, उस देश के अनुरूप उसका आचरण होना चाहिए । उस देश- गाँव, कुल वगैरह में प्रसिद्ध आचारों का उल्लंघन करना, लोकविरुद्ध है। इसलिए विवेकी को उसका भी त्याग करना चाहिए ।
६. उल्बण भोग : गृहस्थ जीवन में सर्वथा भोग का त्याग शायद न हो सके, तो भी धर्मीजन के लिए इन्द्रियों के विषयों में अंध बनकर निर्लज्जता से भोग में प्रवृत्ति करना या निम्न स्तरीय वस्त्र वगैरह से शरीर की शोभा बढ़ाना लोकविरुद्ध कार्य है, इसलिए विवेकी को उससे दूर रहना चाहिए ।
७. स्वयं के दानादि सत्कार्यों का गुणगान करना : खुद ने किए हुए सत्कार्यों की स्वयं ही प्रशंसा करना, लोकविरुद्ध कार्य तो है ही, इसके अलावा खुद की प्रशंसा करने से सत्कार्य से प्राप्त हुआ पुण्य खर्च हो जाता
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है । बोने के बाद जैसे आम की गुठली को भूला दिया जाता है, उसी तरह दान करनेवाले को अपना सुकृत भूल जाना चाहिए, तो ही यह दान उसके लिए कल्याणवृक्ष देनेवाला बनता है।
८. सज्जन के संकट में संतोष: कोई भी सज्जन आपत्ति में आए, ऐसा प्रायः धर्मी आत्मा नहीं सोचती । राजा आदि की तरफ से सज्जनों पर आई आपत्तियों में आनंद मानना भी लोकविरुद्ध कार्य है ।
९. सामार्थ्य होने के बावजूद अप्रतिकार : सज्जनों पर आई आपत्तियों का शक्ति होने के बावजूद प्रतिकार न करना, लोकविरुद्ध कार्य है ।